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क्लाउड सीडिंग में कितना है दम? विशेषज्ञों की राय से टेंशन में सरकार; करोड़ों रुपये भी हो गए बेकार

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संजीव गुप्ता, नई दिल्ली। जिस कृत्रिम वर्षा के परीक्षण को लेकर दिल्ली सरकार का पर्यावरण विभाग बहुत जल्दबाजी में दिखा, उसके दो क्रम के परिणाम बेहद निराशाजनक ही रहे। 28 अक्टूबर को मौसम की स्थितियां बहुत अनुकूल भी नहीं थीं बावजूद इसके क्लाउड सीडिंग का परीक्षण कराया गया परिणाम के बाद आलोचनाओं के बादल और बड़े हो गए। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

एक करोड़ की कीमत से दो परीक्षण हुए बूंदे महज 0.3 एमएम हुई वो भी दिल्ली में नहीं नोएडा में। यानी करोड़ों की कीमत वाली फुहारें, फौरी राहत तक नहीं दे सकीं। यहां गौर करने वाली बात ये भी है कि जिस समय सरकार कृत्रिम वर्षा के परीक्षण को लेकर जोर आजमाइश कर रही है उसी समय दिल्ली का प्रदूषण ‘बहुत खराब’ स्थिति में बना हुआ है। यानी एक्यूआई सरकारी आंकड़ों में 300 तक है और ग्रेप-2 तक लागू है लेकिन, उस समय में प्रदूषण के तात्कालिक नियंत्रण के लिए क्या प्रयास किए जाएं, जो नियम लागू हैं वो ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं इन सब पर ध्यान देने के बजाय कृत्रिम वर्षा के परीक्षण पर ही सब केंद्रित हो गया।

कृत्रिम वर्षा को लेकर पहले से ही पर्यावरण विशेषज्ञ, मौसम विभाग यहां तक की खुद आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिक बहुत सकारात्मक रुख नहीं दिखा रहे। क्योंकि प्रदूषण जिस तरह से सिर उठा चुका है, स्थितियां जितनी बिगड़ चुकी हैं, उसमें कुछ देर की वर्षा समाधान हो ही नहीं सकती। वैसे भी कैंसर जैसे बन चुके प्रदूषण के गंभीर मर्ज पर हम सिर्फ फर्स्टएड जैसे उपचार कैसे कर सकते हैं। और पर्यावरण विशेषज्ञ तो इसके बहुत महंगे होने पर भी सवाल उठा रहे हैं।  

वहीं, जब वैज्ञानिक प्रदूषण नियंत्रण के लिए क्लाउड सीडिंग को कारगर नहीं मान रहे, फिर ऐसा क्यों? साथ ही, दिल्ली समेत एनसीआर में वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए क्लाउड सीडिंग के मुकाबले और क्या बेहतर विकल्प हो सकते हैं? इसी की पड़ताल हमारा आज का मुद्दा है-

क्या आप मानते हैं कि दिल्ली में क्लाउड सीडिंग के प्रयास वायु प्रदूषण पर नियंत्रण करने में कारगर साबित होंगे?
हां : 1
नहीं : 99

क्या दिल्ली में क्लाउड सीडिंग को वैज्ञानियों द्वारा कारगर न माने जाने के बावजूद इसे सिरे चढ़ाया जाना उचित है?
हां : 3
नहीं : 97
कृत्रिम वर्षा केवल आपातकालीन स्थिति के लिए तात्कालिक उपाय

दैनिक जागरण के संवाददाता संजीव गुप्ता से हुई बातचीत में आईआईटी कानपुर के निदेशक डॉ. मणींद्र अग्रवाल ने बताया कि वायु प्रदूषण से जंग में क्लाउड सीडिंग न स्थायी उपाय है न कारगर। सच कहूं तो यह वायु प्रदूषण कम करने का उपाय है ही नहीं। प्रदूषण नियंत्रण में कृत्रिम वर्षा सिर्फ उस समय के लिए आपातकालीन उपाय कहा जा सकता है, जब एक्यूआई का स्तर बहुत ज्यादा बना हुआ हो और वो अन्य उपायों से नीचे ना आ रहा हो। प्रदूषण से जंग में देश में पहले कभी कृत्रिम वर्षा हुई भी नहीं है। इसीलिए इसके परिणाम को लेकर प्रामाणिक तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।

उन्होंने कहा कि पूर्व में भी देश में जहां कहीं क्लाउड सीडिंग की गई है, उसका मकसद सूखा ग्रस्त क्षेत्र में खेतीबाड़ी के लिए सिंचाई की व्यवस्था था। वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए तो जमीनी स्तर पर ही कारगर उपाय किए जाने चाहिए ताकि प्रदूषण का स्तर बढ़ने ही ना पाए।

कृत्रिम वर्षा, जिसे क्लाउड सीडिंग के रूप में भी जाना जाता है, एक मौसम परिवर्तन तकनीक है। इसमें वर्षा को प्रेरित करने या बढ़ाने के लिए रसायनों को बादलों में फैलाया जाता है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य सूखे का सामना कर रहे क्षेत्रों या जहां प्राकृतिक वर्षा अपर्याप्त है, वहां वर्षा को बढ़ाना है। इसके माध्यम से हवा में फैले प्रदूषक कण पदार्थ को नियंत्रित करना सफल नहीं हो सकता।

कृत्रिम वर्षा के माध्यम से अधिक पानी जोड़ने के सोच पर भी गंभीरता से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। गंभीर या बहुत खराब वायु गुणवत्ता का मुद्दा लंबे समय तक रहता है तो भी प्राकृतिक वर्षा के अभाव में, कृत्रिम वर्षा की प्रभावशीलता का स्पष्ट अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है। यह भी याद रखें कि कृत्रिम वर्षा की पहली आवश्यकता बादल है। अगर बादल कम हैं, उनकी ऊंचाई चार-पांच हजार फीट से ज्यादा है और उनमें नमी की मात्रा भी 50 प्रतिशत से कम है, तो उनमें सीडिंग हो ही नहीं पाएगी। अगर की भी जाती है तो अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे।

वायु गुणवत्ता सुधारने के लिए परिवहन, ऊर्जा, कचरे और निर्माण कार्य से होने वाले उत्सर्जन से निपटना होगा। इसके बिना अन्य कदम - स्मॉग टावर, एंटी-स्माग गन या क्लाउड सीडिंग जैसे कास्मेटिक उपाय थोड़े समय के लिए फायदे दे सकते हैं, लंबे समय के लिए नहीं। इनके बजाय राज्यों और एजेंसियों के बीच मिलकर काम करने पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें एयरशेड-बेस्ड तरीका अपनाया जाए और प्रदूषण के असली सोर्स को टारगेट किया जाए। सरकार एवं संबंधित विभागों को भी जमीनी स्तर पर प्रदूषण से निपटने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

अगर हम सच में चाहते हैं कि दिल्ली वासी साफ हवा में सांस ले सकें, तो हमें सिस्टम में बड़े बदलाव करने होंगे। जरूरत है सख़्त नियमों की, और उनके सख़्ती से क्रियान्वयन की। आधुनिक और सस्ती परिवहन सेवा की और वायु गुणवत्ता मानकों को डब्ल्यूएचओ के स्तर तक लाने की। जब तक हम प्रदूषण की जड़ पर चोट नहीं करेंगे, तब तक कोई भी उपाय, चाहे वह प्राकृतिक हो या कृत्रिम, केवल अस्थायी राहत देगा। कृत्रिम वर्षा एक अति महत्वाकांक्षी उम्मीद है। हमें बादलों से नहीं, जमीन से समाधान ढूंढ़ना होगा।

यह भी पढ़ें- क्लाउड सीडिंग के लिए किए जा रहे खर्च पर उठे सवाल, आईआईटी कानपुर के निदेशक ने भी बताया महंगी तकनीक  
एक दिन में नहीं, सालभर करने होंगे प्रदूषण नियंत्रण के प्रयास

सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) के सीनियर प्रोग्राम मैनेजर, विवेक चट्टोपाध्याय ने दैनिक जागरण के संवाददाता संजीव गुप्ता को बातचीत में बताया कि हर सर्दी में दिल्ली-एनसीआर और इंडो-गंगा मैदान घनी धुंध की चादर में लिपट जाते हैं। यह केवल दृश्यता की समस्या नहीं है, बल्कि एक गंभीर स्वास्थ्य संकट भी है।

ठंड के मौसम में वायुमंडलीय परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि प्रदूषक हवा में ऊपर नहीं जा पाते और जमीन के पास फंस जाते हैं। नतीजा हवा की गुणवत्ता “खराब” या “बहुत खराब” श्रेणी में रहती है, कई बार “गंभीर” स्तर तक पहुंच जाती है। कभी-कभी वर्षा से स्थिति थोड़ी सुधरती है मगर यह राहत अस्थायी होती है। धीमी हवा, स्थानीय उत्सर्जन व दूरदराज से आने वाले प्रदूषक मिलकर धुंध को लगातार बनाए रखते हैं।

बताया कि इस स्थिति से निपटने के लिए प्रदूषण नियंत्रण के प्रयास वर्षभर न होना एवं क्षेत्रीय सहयोग का अभाव सबसे बड़ी बाधा है, जबकि यह स्वच्छ हवा का टिकाऊ रास्ता है। वायु (संरक्षण और नियंत्रण) अधिनियम तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम को मजबूत बनाकर स्थानीय और क्षेत्रीय योजनाओं के बीच तालमेल हर हाल में बढ़ाया जाना चाहिए। तभी हम इस सर्दियों के धुंध संकट की गहराई और गंभीरता से निपट पाएंगे।
प्रदूषण के प्रमुख स्रोत

सफर (2018) और टेरी-एआरएआइ (2018) की रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर हर साल लगभग 107,800 टन पीएम 2.5, 268,400 टन पीएम 10, 575,800 टन कार्बन मोनोआक्साइड, 412,600 टन नाइट्रोजन आक्साइड, 679,400 टन वाष्पशील कार्बनिक यौगिक, 619,800 टन सल्फर डाइआक्साइड, 24,200 टन ब्लैक कार्बन और 41,300 टन आर्गेनिक कार्बन उत्सर्जित करता है। इन प्रदूषकों को वायुमंडल से हटाना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए स्रोत पर नियंत्रण ही सबसे कारगर उपाय है। कुछ गैसें तो आपस में मिलकर द्वितीयक प्रदूषक जैसे ओजोन या अतिरिक्त पीएम भी बना देती हैं, जिससे समस्या और बढ़ जाती है।
क्षेत्रीय दृष्टिकोण जरूरी

सर्दियों की धुंध हमें याद दिलाती है कि प्रदूषण केवल शहर की समस्या नहीं है। इसके दायरे में आस-पास के कस्बे, औद्योगिक क्षेत्र और ग्रामीण इलाके भी आते हैं। इंडो-गंगा मैदान सर्दियों में एक विशाल एयरशेड की तरह काम करता है, जहां प्रदूषक दूर-दूर तक यात्रा करते हैं। सर्द मौसम में हवा की गति बहुत धीमी (दो तीन मीटर/ सेकंड से कम), आर्द्रता अधिक और वायुमंडलीय परत बहुत नीची (300-500 मीटर) रहती है। इससे हवा का मिश्रण बाधित होता है और प्रदूषक ज़मीन के पास जमा होते रहते हैं।

-पीएम 2.5 का स्तर कई बार 300-500 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच जाता है, जो पूरे क्षेत्र में छोटे शहरों और गांवों तक को प्रभावित करता है। फसल अवशेष जलाने से भी स्थिति बिगड़ती है। हवा की दिशा बदलने पर (दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर) धुआं पहले से प्रदूषित इलाकों में फैल जाता है।

-विज्ञान यह साफ बताता है - स्थानीय उत्सर्जन शहर को प्रदूषित करते हैं, लेकिन “अपविंड” क्षेत्रों (जहां से हवा आती है) का योगदान भी बड़ा होता है। यही शहर आगे “डाउनविंड” क्षेत्रों को प्रदूषित करता है - यानी प्रदूषण एक साझा समस्या है। भारत का राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम भी इस बात को मान्यता देता है। यह एयरशेड आधारित क्षेत्रीय योजनाओं पर जोर देता है ताकि राज्यों और शहरों में आपसी समन्वय से समाधान निकाला जा सके। दिल्ली-एनसीआर जैसे बड़े उत्सर्जक क्षेत्रों को कठोर नियंत्रण अपनाना होगा, जबकि पड़ोसी राज्यों को भी समयबद्ध एक्शन प्लान लागू करने होंगे ताकि समग्र सुधार हो सके।
बहु-स्रोत, बहु-प्रदूषक रणनीति

लोग केवल एक प्रदूषक से नहीं, बल्कि उनके मिश्रण से प्रभावित होते हैं। इसलिए समाधान भी बहु-स्रोत और बहु-प्रदूषक होना चाहिए। दिल्ली में वाहन प्रदूषण 39-41 प्रतिशत पीएम 2.5 के लिए जिम्मेदार है। इसका मतलब है - नियमित उत्सर्जन परीक्षण लागू करना और 2030 तक नए वाहनों में 30 प्रतिशत इलेक्ट्रिक वाहन सुनिश्चित करना। इसके लिए नीति प्रोत्साहन, चार्जिंग नेटवर्क और सख्त आदेश जरूरी हैं। इसी तरह उद्योग क्षेत्र, निर्माण धूल की भी बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। इनके लिए सीधे उपाय करने की जरूरत है।

-सर्दियों में प्रदूषण मुख्यतः आग का धुआं, जबकि गर्मियों में धूल से - इसलिए उपाय सालभर के लिए गतिशील और क्षेत्र-विशिष्ट होने चाहिए।

दीर्घकालिक समाधान : स्रोतों की कमी : अध्ययन बताते हैं कि स्रोत-स्तर पर नियंत्रण-जैसे सख्त वाहन मानक, उद्योग उन्नयन और स्वच्छ ईंधन-लंबे समय तक लाभ देते हैं और उनकी लागत-लाभ अनुपात भी अच्छा होता है। इसके उलट, अस्थायी उपाय (जैसे प्रतिबंध या आपात योजना) सीमित और महंगे साबित होते हैं। शहरी प्रदूषण में बाहरी योगदान को देखते हुए, पूरे एयरशेड में सेक्टर-विशिष्ट कमी, सख्त अनुपालन और जवाबदेही जरूरी है।

प्रदूषण नियंत्रण को सरकार ने बहुत सारे उपाय किए हुए हैं, यदि वो सभी कागजों से निकल वास्तविकता में आ जाएं। सभी उपकरण, मशीनरी ठीक से काम करें तो स्थिति ठीक हो सकती हैं। लेकिन अलग-अलग सरकारी एजेंसियों की जिम्मेदारी के कारण प्रदूषण नियंत्रण हमेशा प्रभावित रहा है। अलग-अलग जवाबदेही है, उसमें भी बैठकें नहीं होती। मानीटरिंग नहीं की जाती। प्रदूषण बढ़ने के विभिन्न कारण हैं, उन पर नियंत्रण पर ध्यान देने की जरूरत है :
हवाहवाई उपायों के फेर में जमीनी उपायों पर ध्यान ही नहीं

इस समय सरकार को क्लाउड सीडिंग के बजाय विंटर एक्शन प्लान और ग्रेप के दोनों चरणों की पाबंदियों की कागजी से जमीनी हकीकत पर ध्यान देने की जरूरत थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। विंटर एक्शन प्लान, जोकि हर साल लागू ही 1 अक्टूबर से होता है, इस साल दो सप्ताह बाद जारी किया गया। उस पर भी उसके नियम कायदों के ठीक से क्रियान्वयन को लेकर ना कहीं कोई सख्ती नजर आती है और न समीक्षा। यही हाल ग्रेप के पहले एवं दूसरे चरण के प्रतिबंधों का है। सब कुछ बदस्तूर चल रहा है। यही वजह है कि दिल्ली का एक्यूआइ निरंतर \“खराब\“ से \“बहुत खराब\“ बना हुआ है।
क्लाउड सीडिंग बजट बनाम अन्य प्रदूषण नियंत्रण सुधार

3.21 करोड के क्लाउड सीडिंग कराने के बजट से दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के लिए कई नई बसें खरीदी जा सकती थीं, मेट्रो फीडर बसें ली जा सकती थीं, दिल्ली में अनेकों साइकिल स्टैंड बनाए जा सकते थे। इसके अलावा दिल्ली में कुल 70 विधानसभा क्षेत्र हैं। हर विधानसभा क्षेत्र के लिए एक एक वाटर स्प्रिंकलर या मैकेनिकल स्वीपिंग मशीन की व्यवस्था की जा सकती थी। क्लाउड सीडिंग से धूल ही तो कम होती, ये सब वो माध्यम हैं जिनसे आराम से धूल कम हो सकती है और सरकार के इतने ही बजट में काम भी हो जाता।
क्या ये सब दिल्ली की सड़कों पर हो रहा है

सड़क और निर्माण कार्य की धूल से निपटने को दिल्ली सरकार ने ये प्लान बनाया है लेकिन न एंटी स्माग गन दिखतीं न ही सड़कों से धूल साफ होती।

  • 86 मैकेनिकल रोड स्वीपर, 300 स्प्रिंकलर
  • 362 एंटी-स्मांग गन पहले से ही तैनात
  • 70 और नए स्वीपर व उपकरण जोड़े जा रहे हैं।
  • सभी बड़ी सड़कों की वैक्यूम क्लीनिंग होगी, रूट जीपीएस से ट्रैक किए जाएंगे।
  • 500 वर्गमीटर से बड़े हर निर्माण प्रोजेक्ट के लिए आनलाइन रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है।
  • 3,000 वर्गमीटर से बड़े प्रोजेक्ट और छह मंजिली इमारतों के लिए एंटी-स्माग गन लगाना जरूरी।
  • 698 किलोमीटर सड़क किनारे पेविंग और 85 किमी मिड-वर्ज ग्रीनिंग का लक्ष्य तय।
  • 65% शिकायतों का ही निदान किया गया है, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के समीर एप पर 15 अक्टूबर 2021 से 22 अक्टूबर 2025 के दौरान दिल्ली के विभिन्न विभागों से की गई 8,480 शिकायतों में से। इसमें सबसे अधिक नगर निगम और जलबोर्ड पर शिकायतें लंबित, जिनका निदान नहीं हुआ।

दिल्ली का एक्यूआई

तिथि एक्यूआई श्रेणी

27 : 301 बहुत खराब

28 : 294 खराब

29 279 खराब
वायु प्रदूषण गहराने के मुख्य कारण

  • प्रतिकूल मौसमी परिस्थतियां, हवा की रफ्तार या तो पांच किमी प्रति प्रति घंटे से भी कम रह जाना या शांत हो जाना
  • दीवाली पर अच्छी खासी मात्रा में आतिशबाजी-पटाखे जलाना
  • हवा में नमी बढ़ जाने से सुबह-शाम हल्की धुंध छाना और उसमें प्रदूषक तत्व जम जाना
  • त्योहारों की वजह से सड़कों पर वाहनों की संख्या बढ़ जाना और यातायात जाम भी लगना


आईआईटीएम पुणे के डिसिजन सपोर्ट सिस्टम (डीएसएस) के मुताबिक, वर्तमान में दिल्ली के प्रदूषण में किस कारक और शहर की कितनी हिस्सेदारी

  
कृत्रिम वर्षा क्या है और कैसे की जाती है

क्लाड सीडिंग मौसम बदलने वाली तकनीक है। इसमें वर्षा बढ़ाने के लिए बादलों में सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड, सोडियम क्लोराइड या ड्राई आइस जैसे पदार्थों का छिड़काव किया जाता है।
दिल्ली सरकार कैसे करा रही है कृत्रिम वर्षा

  • कितने ट्रायल होंगे : 5
  • एक ट्रायल पर खर्च : 55 लाख
  • पांच ट्रायल पर खर्च : 2.75 करोड़
  • कितने ट्रायल हुए : 2
  • एयरक्राफ्ट की कैलिब्रेशन, कैमिकल स्टोरेज-लाजिस्टिक के लिए : 66 लाख
  • प्रोजेक्ट पर कुल खर्च : 3.21 करोड़

कौन करा रहा, कौन कर रहा

इस प्रोजेक्ट को आइआइटी कानपुर के दिशा निर्देश में इसका संचालन हो रहा। पूरे प्रोजेक्ट की योजना, एयरक्राफ्ट की तैनाती, कैमिकल का छिड़काव, वैज्ञानिक माडलिंग और ट्रायल्स की निगरानी उसी के जरिए हो रही। दिल्ली सरकार आइआइटी कानपुर को फंड जारी कर रही।
ट्रायल सिर्फ यहीं संभव

बाहरी दिल्ली इलाकों में ही हो सकता है परीक्षण। इसके लिए अलीपुर, बवाना, रोहिणी, बुराड़ी, पावी सड़कपुर और कुंडली बार्डर के इलाकों को चुना गया है। डीजीसीए ने यहीं के लिए ही दी है अनुमति। आइआइटी कानपुर का स्पेशल एयरक्राफ्ट \“सेसना\“ इस्तेमाल हो रहा।
पहले भी होती रही है कृत्रिम वर्षा

  • 2017 की गर्मियों के दौरान आइआइटी कानपुर के जरिये ही दिल्ली में कृत्रिम वर्षा के लिए सात बार प्रयास किया था, लेकिन छह बार में यही सामने आया कि प्रदूषण थामने के लिए जिस मात्रा और फ्रीक्वेंसी के साथ वर्षा होनी चाहिए, वह कृत्रिम वर्षा से तो संभव ही नहीं है।
  • 1946 : अमेरिका विज्ञानी विंसेंट शेफर ने पहला प्रयोग किया। उन्होंने ठंडे कमरे में सूखी बर्फ (ठोस सीओ2) डाली और देखा कि तुरंत बादल बन गया।
  • 1947 : बर्र्ग्ड वान्गुट ने सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल किया, जो सूखी बर्फ से बेहतर साबित हुआ।
  • 1970 : भारत में आइआइटीएम ने प्रयोग किए, जिनसे बारिश में 17 प्रतिशत बढ़ोतरी दिखी, लेकिन पूरी तरह साबित नहीं हो सका।
  • इसके अलावा भारत में पहले कृत्रिम वर्षा का प्रयास प्रदूषण नहीं बल्कि सूखे की समस्या से निपटने के लिए तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में किया जा चुका है।
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