जन्म के बाद बच्चों में लिंग के उलझन को लेकर डॉक्टर ने बताया समाधान।
अनूप कुमार सिंह, नई दिल्ली। अगर किसी बच्चे के जन्म के बाद यह तय करना मुश्किल हो जाए कि वह लड़का है या लड़की, उसका शरीर सामान्य पुरुष या महिला जैसा न दिखे, तो यह स्थिति माता-पिता के लिए गंभीर चिंता का कारण बन जाती है। लोग इसे ट्रांसजेंडर का मामला समझ शिशु के साथ उस अनुरूप व्यवहार करने लगते हैं, जबकि अधिकांश मामले में यह स्थिति नहीं होती। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली के विशेषज्ञ चिकित्सकों का कहना है कि ऐसे मामलों में वजह डीएसडी (डिसआर्डर या डिफरेंस आफ सेक्स डेवलपमेंट) हो सकती है। यह सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि मानव शरीर के जैविक विकास से जुड़ी जन्मजात चिकित्सकीय स्थिति है। पर, जानकारी और उचित चिकित्सीय सलाह के अभाव शिशु को इसी दंश के साथ अपना जीवन बिताना पड़ता है। बच्चे के भविष्य के लिए समय पर सही जानकारी और विशेषज्ञ से संपर्क ही सबसे बड़ा इलाज है।
अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा अध्ययनों के अनुसार, लगभग हर चार से पांच हजार जन्मों में से एक शिशु किसी न किसी रूप में डीएसडी से प्रभावित हो सकता है। भारत जैसी बड़ी जनसंख्या वाले देश में हर साल हजारों बच्चे इस स्थिति के साथ जन्म लेते हैं। पर, जानकारी के अभाव में कई मामले सामने ही नहीं आ पाते और इस तरह जन्म लेने वाले शिशु ताउम्र अभिशप्त जीवन जीने को विवश रहते हैं, जबकि उपचार संभव है।
एम्स की बाल रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर डा. वंदना जैन और पेडियाट्रिक एंडोक्राइनोलाजी विशेषज्ञ डा.रजनी शर्मा के अनुसार गर्भावस्था में बच्चे के शरीर में क्रोमोसोम, हार्मोन और जननांगों का विकास एक तय क्रम और तालमेल से होता है। क्रोमोसोम शरीर का जैविक खाका तय करते हैं, हार्मोन उसके अनुसार शरीर को विकसित करते हैं, जननांग इसी प्रक्रिया का परिणाम होते हैं।
जब इस तालमेल में गड़बड़ी हो जाती है, तो बच्चे का लैंगिक विकास पारंपरिक पुरुष या महिला के ढांचे से अलग हो सकता है। इस कारण कभी-कभी जन्म के समय यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि शिशु महिला है या पुरूष। इसे ही डीएसडी कहते हैं, यह ट्रांसजेंडर अवस्था नहीं होती। साथ ही यह पूरी तरह दुर्लभ चिकित्सीय अवस्था नहीं हैं।
एम्स के पेडियाट्रिक सर्जरी विशेषज्ञ डा. डीके यादव बताते हैं कि डीएसडी में बाहरी जननांग अस्पष्ट हो सकते हैं। उनकी अंदरूनी और बाहरी बनावट में अंतर हो सकता है, किशोरावस्था के अपेक्षित शारीरिक बदलाव भी समय पर नहीं दिखते। कहाकि, गलत जानकारी के कारण लोग इसे ट्रांसजेंडर से जोड़ देते हैं और बच्चे का इलाज नहीं कराते। इससे बच्चा उम्र भर शारीरिक और मानसिक पीड़ा के साथ जीने को मजबूर हो जाता है।
एम्स के मनोचिकित्सक डा. राजेश सागर के अनुसार, डीएसडी के मामलों में केवल शरीर का इलाज ही नहीं, बल्कि परिवार और बच्चे को मनोवैज्ञानिक सहयोग देना भी उतना ही आवश्यक है। इसलिए विशेषज्ञों की टीम से चरणबद्ध संवेदनशील उपचार इसका सही रास्ता है। आह्वान किया कि इस स्थिति को लेकर समाज में फैले डर और भ्रम को दूर कर यह संदेश देने की आवश्यकता है कि डीएसडी से डरने की नहीं, समझ और सही उपचार कराने की आवश्यकता है।
उपचार
हर मामलों में डीएसडी का इलाज एक जैसा नहीं होता, कुछ मामलों में हार्मोन उपचार, कुछ में शल्य चिकित्सा के साथ मनोवैज्ञानिक परामर्श आवश्यक होता है। विशेषज्ञों का साफ संदेश है डीएसडी डर की नहीं, समझ, संवेदनशीलता और सही इलाज की स्थिति है। बच्चे के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए समय पर सही जानकारी और विशेषज्ञ चिकित्सक से संपर्क सबसे जरूरी कदम है।
डीएसडी और ट्रांसजेंडर में फर्क
डीएसडी:
जन्मजात चिकित्सकीय स्थिति
शरीर के जैविक विकास (क्रोमोसोम, हार्मोन, जननांग) से जुड़ी
इलाज और प्रबंधन चिकित्सा विशेषज्ञ करते हैं
ट्रांसजेंडर:
लैंगिक पहचान से जुड़ा विषय
व्यक्ति की मानसिक और सामाजिक पहचान से संबंधित
यह कोई बीमारी या जन्मजात शारीरिक गड़बड़ी नहीं |