प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल की गई तस्वीर। (जागरण)
राजू सिंह, बनियापुर (सारण)। बनियापुर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी समर अपने निर्णायक दौर में है। उलटी गिनती शुरू हो चुकी है, लेकिन इस बार का मुकाबला पहले से कहीं अधिक पेचीदा और दिलचस्प हो गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह एक प्रमुख जातीय वर्ग का 1952 के बाद पहली बार चुनावी मैदान से दूरी बनाना है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
इस वर्ग के उम्मीदवार का न उतरना न केवल स्थानीय राजनीति का संतुलन बिगाड़ गया है, बल्कि पूरे क्षेत्र के जातीय समीकरण को भी उलट-पुलट कर दिया है।
परंपरागत रूप से इस वर्ग का वोट हर बार सत्ता परिवर्तन में निर्णायक भूमिका निभाता रहा है। यही वह वर्ग था जिसकी पसंद पर उम्मीदवारों की किस्मत तय होती थी। लेकिन इस बार उनके प्रतिनिधि के चुनाव से बाहर रहने के फैसले ने एनडीए, राजद और जदयू सभी दलों की रणनीतियों को नया मोड़ दे दिया है।
चेतन छपरा चौक स्थित चाय दुकान पर बैठे अवकाश प्राप्त प्रोफेसर मुरलीधर राय ने कहा कि बनियापुर की राजनीति अब तक पूरी तरह जातीय गणित पर आधारित रही है। यादव, राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, कुर्मी, मुस्लिम और अनुसूचित वर्ग के मतों के इर्द-गिर्द ही चुनावी समीकरण तय होते रहे हैं। लेकिन इस बार भूमिहार वर्ग का प्रतिनिधित्व न होना समीकरण को पूरी तरह बदल चुका है।
वोट बैंक में बिखराव और नई रणनीति की तलाश
चाय की दुकान पर चर्चा में शामिल अशोक मिश्रा और कमला प्रसाद राय का कहना था कि इस बदलाव का सीधा असर मुख्य राजनीतिक दलों राजद, भाजपा और जदयू के वोट शेयर पर पड़ेगा।
जिन दलों को अब तक इस वर्ग का ठोस समर्थन मिलता था, उन्हें अब नए समीकरण के अनुसार रणनीति बनानी पड़ रही है। यह स्थिति अन्य वर्गों में राजनीतिक उत्साह तो बढ़ा रही है, लेकिन पारंपरिक वोट बैंक बिखरते नजर आ रहे हैं।
पूर्व मुखिया असलम अली, जो पुछरी बाजार स्थित जयश्री मार्केट में बैठे थे, उन्होंने कहा कि इस वर्ग का नेतृत्व बनियापुर विधानसभा में लगातार प्रभावी रहा है। उन्होंने बताया कि इसी समाज से नेत्री उमा पांडे पांच बार, रमाकांत पांडे एक बार और धूमल सिंह दो बार विधायक रह चुके हैं।
वहीं, डॉ. सद्दाम हुसैन ने चर्चा के दौरान कहा कि टिकट वितरण में उपेक्षा और स्थानीय नेतृत्व की अनदेखी से इस वर्ग की नाराजगी चरम पर पहुंच गई, जिसके चलते उन्होंने चुनाव से किनारा कर लिया।
स्टार प्रचारकों पर भी जमकर हुई बहस
पुछरी बाजार की एक कैफे दुकान पर बैठे कुछ लोगों ने स्टार प्रचारकों को लेकर भी तीखी चर्चा की। अजीत सिंह ने भाजपा नेता मनोज तिवारी के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के छठ पूजा में बिहार आने की बात सिर्फ प्रचार का हिस्सा है। पप्पू सिंह ने जोड़ा कि छठ तो दिल्ली में भी होता है, फिर बिहार आने का मुद्दा क्यों बनाया गया।
तभी बीच में अजीत सिंह ने कहा कि मनोज तिवारी को तो असम जाना चाहिए था, जहां छठ पूजा करने वालों के साथ बिहारियों पर हमला हो रहा था। इन बहसों ने यह दिखा दिया कि स्थानीय जनता अब बड़े नेताओं के बयानों से अधिक जमीनी मुद्दों को महत्व दे रही है।
दल बदलती रणनीतियां और नई दावेदारी
इस बीच राजद ने माई समीकरण (मुस्लिम-यादव गठजोड़) पर भरोसा जताते हुए दावा किया है कि इस बार भूमिहार समाज का समर्थन भी उनके पक्ष में जाएगा। पार्टी समर्थकों का कहना है कि इस समाज का प्रत्याशी न होने से उसका झुकाव राजद की ओर है।
दूसरी ओर एनडीए खेमे के नेता इसे सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि भूमिहार समाज अब भी एनडीए के साथ है और विकास व सुरक्षा के नाम पर वोट देगा। इसके अलावा कुछ निर्दलीय उम्मीदवार और जन सुराज पार्टी के दावेदार भी इसी वोट बैंक को साधने में जुटे हैं।
ग्रामीण इलाकों में बदला जनमत
गांवों में हो रही चर्चाएं भी दिलचस्प हैं। शंभू ओझा, सतेंद्र राय और नरेश राय जैसे ग्रामीण मतदाताओं का कहना है कि एनडीए सरकार में विकास तो हुआ है, लेकिन नल-जल योजना, शिक्षा सुधार और सिंचाई व्यवस्था जैसे कई जरूरी काम अधूरे रह गए हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस बार जनता केवल जातीय पहचान से नहीं, बल्कि उम्मीदवार के काम और विश्वसनीयता के आधार पर वोट करेगी।
ग्रामीणों का कहना है कि अब बनियापुर की राजनीति जाति से विकास की ओर बढ़ रही है। एक वर्ग का चुनाव से बाहर रहना यह संकेत दे रहा है कि अब मतदाता सिर्फ जातीय जुड़ाव से नहीं, बल्कि स्थानीय मुद्दों, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर अपने प्रतिनिधि का चयन करेगा।
अंतिम समीकरण अब मतदाता के हाथ में
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार बनियापुर में मुकाबला और अधिक अप्रत्याशित हो गया है। जहां राजद और एनडीए दोनों अपने-अपने सामाजिक समीकरणों को साधने में लगे हैं, वहीं जमीनी स्तर पर मतदाता चुपचाप स्थिति का आकलन कर रहे हैं।
युवा और निष्पक्ष मतदाता किंगमेकर की भूमिका में नजर आ रहे हैं, जिनका वोट आखिरी समय में चुनावी नतीजों का रूख तय कर सकता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या एक वर्ग की गैरमौजूदगी बनियापुर की सत्ता की दिशा बदल देती है, या फिर पारंपरिक समर्थन पर टिकी ताकतें एक बार फिर जीत का परचम लहराती है। |