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राष्ट्र और नीति के गढ़नायक हैं शाह

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लेखक- प्रेम शंकर झा, आईआरएसएस 2008



डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। पिछले दस वर्षों में देश ने कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व परिवर्तन देखे हैं। आंतरिक सुरक्षा मजबूत हुई है, नागरिकता की परिभाषा स्पष्ट हुई है और शासन व्यवस्था में पारदर्शिता आई।

यह वह समय है जब शासन की परिभाषा केवल सत्ता तक सीमित नहीं रही, बल्कि नीति के जरिए राष्ट्र को गढ़ने का संकल्प बनी और इस सोच के केंद्र में अगर किसी का नाम गूंजता है, तो वह है अमित शाह। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में मैंने हमेशा देखा है कि नीति केवल कानून बनाने तक सीमित नहीं होनी चाहिए उसका असर जमीनी स्तर तक दिखना चाहिए। गृहमंत्री शाह ने जिस तरह राजनीति को नीति में बदला और नीति को राष्ट्र-निर्माण का औजार बनाया वह भारतीय लोकतंत्र में दुर्लभ है। उन्हें केवल रणनीतिकार कहना इस पूरे दौर को छोटा कर देना होगा। वे दरअसल उस गढ़नायक की तरह हैं जिसने विचार, अनुशासन और दृष्टि से एक नई व्यवस्था की नींव रखी।

नक्सलवाद के बारे में गृहमंत्री शाह ने बार-बार स्पष्ट किया कि ये केवल हथियारबंद संघर्ष नहीं है। इसके पीछे विचारधारा और समाज के कमजोर एवं असुरक्षित वर्गों का समर्थन भी चुनौतीपूर्ण है। बस्तर की पहाड़ियों से लेकर दिल्ली की फाइलों तक, शाह की सोच एक सूत्र में बंधी है, सुरक्षा ही विकास की पहली शर्त है। यही कारण है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में अब बारूद की गंध नहीं, स्कूल की घंटियां सुनाई देती हैं। जिन सड़कों पर कभी बंदूकें बोली थीं, वहां अब बच्चे साइकिल चलाते हैं और लोग अपने खेतों की मिट्टी में मेहनत करते हैं। यह बदलाव केवल सुरक्षा बलों की कार्रवाई का परिणाम नहीं, बल्कि उस नीति का परिणाम है जिसने विकास को हथियार बनाया।

बस्तर के गहरे जंगलों में पिछले दशक का बदलाव मैंने खुद देखा है। एक बस्तर यात्रा के दौरान कई गांवों में लोग मुझे बताने लगे कि पहले उन्हें सुरक्षा बलों पर भरोसा नहीं था, लेकिन अब जंगल से लौटते समय उन्हें सुरक्षा का अहसास होने लगा है। यह बदलाव केवल सुरक्षा बलों की कार्रवाई का परिणाम नहीं, बल्कि शाह की चार-स्तरीय नीति सुरक्षा, विकास, आत्मसमर्पण और स्थानीय समन्वय का परिणाम है।

मार्च 2024 तक गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में नक्सलवादी घटनाओं में 53 प्रतिशत की कमी आई और सुरक्षा बलों की हताहत संख्या 73 प्रतिशत तक गिरी है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रफल 18,000 वर्ग किलोमीटर से घटकर अब मात्र 4,200 वर्ग किलोमीटर रह गया है। साथ ही, सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए 66 से बढ़ाकर 612 बख्तरबंद चौकियां बन चुकी हैं। वर्ष 2013 में देश के 126 नक्सल प्रभावित जिले थे, जिनकी संख्या वर्ष 2025 तक घटकर 11 रह गई। इन 11 जिलों में बीजापुर, दंतेवाड़ा, गरियाबंद, कांकेर, मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी, नारायणपुर और सुकमा (सभी छत्तीसगढ़), पश्चिमी सिंहभूम (झारखंड), बालाघाट (मध्य प्रदेश), गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) और कंधमाल (ओडिशा) शामिल हैं। वहीं, सबसे अधिक प्रभावित जिलों की संख्या 36 से घटकर केवल तीन रह गई। छत्तीसगढ़ में केवल बीजापुर, सुकमा और नारायणपुर ही उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) से सबसे ज्यादा प्रभावित जिले हैं।

इस अवधि में नक्सल हिंसा में 73 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई, जिसमें 2,100 से अधिक नक्सली निष्क्रिय किए गए और 4,800 ने आत्मसमर्पण किया। आंकड़े बताते हैं केंद्र सरकार 31 मार्च 2026 से पहले नक्सलवाद को जड़ से खत्म कर देगी।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों (विशेष रूप से छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, बिहार, और मध्य प्रदेश) में सड़क निर्माण को प्राथमिकता दी गई है ताकि सुरक्षा बलों की पहुंच और स्थानीय विकास को बढ़ावा मिले। वर्ष 2014 से 2023 तक, लेफ्ट विंग एक्सट्रीमिज्म (एलडब्ल्यूई) क्षेत्रों में लगभग 6,000 किमी सड़कों का निर्माण हुआ था। वर्ष 2024-25 में केंद्र सरकार ने रोड कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट फार एलडब्ल्यूई एरियाज के तहत अतिरिक्त 2,000 किमी सड़कों का लक्ष्य रखा।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में संचार नेटवर्क को मजबूत करने के लिए मोबाइल टावर प्रोजेक्ट वर्ष 2014 में शुरू हुआ था। गृह मंत्रालय और दूरसंचार मंत्रालय की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, एलडब्ल्यूई क्षेत्रों में 2,200 मोबाइल टावर स्थापित किए गए थे। 2024-25 में 300-400 अतिरिक्त टावर लगाने का लक्ष्य था।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने एकलव्य मॉडल रेजिडेंशियल स्कूल्स (ईएमआरएस) और अन्य स्कूलों की स्थापना की है। वर्ष 2014 से वर्ष 2023 तक, एलडब्ल्यूई क्षेत्रों में लगभग 900 स्कूल बनाए गए थे, जिनमें ईएमआरएस और स्थानीय स्कूल शामिल हैं। वर्ष 2024-25 में 300 अतिरिक्त स्कूलों का लक्ष्य था।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार सृजन के लिए स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम्स, रोजगार मेलों और प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) जैसी योजनाएं लागू की गई हैं। गृह मंत्रालय की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, 2014-23 तक एलडब्ल्यूई क्षेत्रों में 1.2 लाख युवाओं को रोजगार और प्रशिक्षण से जोड़ा गया था। 2024-25 में अतिरिक्त 30,000-40,000 युवाओं को शामिल करने का लक्ष्य था। यह आंकड़ा 1.5 लाख तक पहुंच सकता है, खासकर अगर मनरेगा और अन्य स्थानीय रोजगार योजनाओं को शामिल किया जाए। इसे देखकर मैं यह मानता हूं कि सुरक्षा केवल बल प्रयोग नहीं, बल्कि विकास और समाज की सहभागिता से ही सुनिश्चित होती है।

उत्तर-पूर्व में मेरी कई यात्राएं हुईं और मैंने वहां के प्रशासनिक ढांचे, स्थानीय समुदाय और सुरक्षा तंत्र का बारीकी से अवलोकन किया। मैंने बोडो समझौता (2020) और त्रिपुरा समझौता (2024) जैसी घटनाओं का अध्ययन किया। 10,500 से अधिक उग्रवादी मुख्यधारा में लौटे, और 7,800 ने हथियार डाल दिए।

मेरा विश्लेषण कहता है कि अनुच्छेद 370 के हटने की रणनीति शाह की गुप्त योजना का हिस्सा थी, जिसने प्रदेश को पूर्ण रूप से भारत से एकीकृत किया।
पांच अगस्त 2019 की सुबह मुझे आज भी याद है, जब केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर कश्मीर को एकीकरण की राह पर अग्रसर किया। उस दिन मैं आश्चर्यचकित था, लेकिन अब भी आश्चर्य है कि इतने संवेदनशील फैसले के इतने सकारात्मक नतीजे सामने आए। घाटी में हिंसा लगभग समाप्त हो चुकी है, पत्थरबाजी और विद्रोही घटनाओं की आवाजें गुम सी हो गई हैं। मैंने श्रीनगर और लद्दाख की यात्रा की, जहां लोगों के चेहरे पर राहत और आत्मविश्वास की चमक देखी।

पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के खिलाफ लक्षित कार्रवाई के परिणामस्वरूप सुरक्षा बलों की हताहतियों में 65 प्रतिशत और नागरिक हताहतियों में 77 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। 2020 से 2024 तक 1,200 आतंकियों को निष्क्रिय किया गया और 3,500 से अधिक गिरफ्तार किए गए। इस दौरान 15 हजार करोड़ रुपये के विकास कार्य हुए, जिनमें 4,500 किमी सड़क और 1,800 स्कूल शामिल हैं। मैं इसे देखकर हमेशा सोचता हूं कि केवल बल ही नहीं, बल्कि संवाद और स्थानीय लोगों की भागीदारी ही आंतरिक सुरक्षा की असली कुंजी है।

श्रीनगर के एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में डाक्टर से मुलाकात के दौरान उन्होंने बताया कि अब अज्ञात तबाही के डर के बिना मरीज इलाज के लिए आ रहे हैं। पुलवामा जिले के एक स्कूल में गणतंत्र दिवस समारोह में उपस्थित लोगों ने बताया कि सुरक्षा बलों के सहयोग से वे अब अपने बच्चों को खुलकर पढ़ा सकते हैं। ये देखकर कह सकते हैं कि अनुच्छेद 370 हटने से विकास की गाड़ियों में गति आ गई है।

मई 2023 में बांदीपोरा के एक स्कूल में मिली शिक्षिका ने बताया कि पहले तंबू में पढ़ाते थे, अब नए स्कूल भवन और शिक्षण सामग्री मिल गई है। हिमालय की गोद में अटूट शांति लौटने का यह एहसास मुझे गहरे भावुक कर गया।

आर्थिक अपराध और विदेशी भगोड़ों पर शाह की कार्रवाई भी उल्लेखनीय रही। विशेष जेलों का निर्माण, रेड कार्नर नोटिस और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से 127 भगोड़े भारत लाए गए, जिनमें विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे बड़े नाम शामिल हैं। लगभग 1.17 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की गई। सात नई उच्च-सुरक्षा जेलों का निर्माण किया गया, जिनकी क्षमता 2,500 थी। इसे देख कर मुझे यह समझ आता है कि राष्ट्रीय संप्रभुता, आर्थिक स्थिरता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए कठोर, समयबद्ध और संगठित कार्रवाई कितनी जरूरी है।

प्रवासन और शरणार्थी नीति के क्षेत्र में गृहमंत्री शाह ने स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने बार-बार भारतवासियों से कहा कि प्रत्येक भारतवासी को शरणार्थी और घुसपैठिए में अंतर करना सीखना होगा। यह अंतर केवल कानूनी नहीं, बल्कि मानवीय और रणनीतिक भी है।

गृह मंत्री अमित शाह ने भारत की शरणार्थी नीति को नई दिशा दी है, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवीयता का संतुलन स्थापित करने पर जोर दिया गया है। उनका दृष्टिकोण रहा है कि भारत उन लोगों को आश्रय दे, जो उत्पीड़न से भागकर आए हैं, लेकिन साथ ही देश की सीमाओं और जनसांख्यिकीय संतुलन को सुरक्षित रखे। इस विजन को साकार करने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) जैसी पहल शुरू की गईं। सीएए के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए छह धार्मिक समुदायों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई के उन लोगों को नागरिकता दी गई, जो धार्मिक उत्पीड़न के कारण 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए।

मेरा अक्सर राजस्थान और गुजरात जाना होता है। वहां मैंने उन शरणार्थियों से मुलाकात की जो पाकिस्तान से आए थे। उनकी आंखों में डर के बजाय सुरक्षा और सम्मान की चमक थी। मार्च 2025 तक 31,313 लोगों को नागरिकता मिली।

एनआरसी का उद्देश्य अवैध प्रवास पर नियंत्रण करना था, विशेष रूप से असम में, जहां वर्ष 2019 में 19 लाख लोग रजिस्टर से बाहर रहे। गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि सीएए और एनआरसी अलग-अलग हैं और इनका मकसद भारत को एक सुरक्षित और समावेशी राष्ट्र बनाना है। इन नीतियों ने लाखों उत्पीड़ित लोगों को सम्मानजनक जीवन का अवसर दिया, जिससे भारत की वैश्विक छवि एक मानवीय देश के रूप में और मजबूत हुई।

भारत ने वर्ष 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और वर्ष 1967 के प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, क्योंकि वह अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और स्वतंत्र नीतियों को प्राथमिकता देता है। फिर भी, भारत की मानवीय परंपराएं हमेशा से मजबूत रही हैं। मार्च 2025 तक, भारत में 2.11 लाख लोग शरणार्थी या विशेष चिंता वाले व्यक्ति के रूप में दर्ज थे, जिनमें म्यांमार से 45 हजार, अफगानिस्तान से 25 हजार और बांग्लादेश से 30 हजार लोग शामिल थे। भारत ने इनमें से कई को आश्रय और सहायता दी, जैसे तिब्बती शरणार्थियों (85 हजार) को वर्ष 2014 में पुनर्वास नीति के तहत विशेष दर्जा दिया गया। श्रीलंकाई तमिल (1.1 लाख) और रोहिंग्या (18 हजार) जैसे समूहों के लिए भी सरकार सहायता प्रदान कर रही है और भविष्य में और समावेशी नीतियों की दिशा में काम चल रहा है। अप्रैल 2025 में लागू इमिग्रेशन एंड फॉरेनर्स एक्ट ने प्रवासन प्रक्रियाओं को आधुनिक बनाने की दिशा में कदम उठाया, जिससे शरणार्थी मामलों को व्यवस्थित करने में मदद मिल रही है।

भारत का मानवीय चेहरा हमेशा उसकी राजनीतिक सीमाओं से बड़ा रहा है। वर्ष 1971 के बांग्लादेश युद्ध में एक करोड़ शरणार्थियों को आश्रय दिया गया, तिब्बती मठवासियों को 1960 से पनाह मिली और अफगानिस्तान से आए 25 हजार लोगों को सहानुभूति दी गई। अमित शाह का विजन साफ दिखता है कि भारत एक ऐसा देश बने, जहां शरणार्थी और घुसपैठिए में स्पष्ट अंतर हो और इसके लिए एक स्वतंत्र, पारदर्शी शरणार्थी आयोग की स्थापना जरूरी है।

वर्ष 2025 में गृह मंत्रालय ने 10 हजार शरणार्थी मामलों की समीक्षा शुरू की, जो इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है। यह आयोग मानवाधिकार और राष्ट्रीय हितों को संतुलित करेगा, ताकि सताए गए लोगों को शरण मिले और देश की सुरक्षा बरकरार रहे। शाह की नीतियां भारत को एक मजबूत, संवेदनशील और सुरक्षित राष्ट्र बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हैं, जो न केवल अपनी सीमाओं की रक्षा करता है, बल्कि दुनिया भर के जरूरतमंद लोगों के लिए आशा का प्रतीक भी है।
न्यायिक सुधारों में अमित शाह के नेतृत्व में वर्ष 2024 में लागू तीन नए आपराधिक कानून भारतीय न्याय संहिता, नागरिक सुरक्षा संहिता और साक्ष्य अधिनियम ने न्यायिक प्रक्रिया को 21वीं सदी के अनुकूल बनाया। इन कानूनों का उद्देश्य न्याय, समयबद्धता और डिजिटल साक्ष्य पर आधारित सजा सुनिश्चित करना था। वर्ष 2025 तक कन्विक्शन रेट हरियाणा में 40 प्रतिशत से बढ़कर 80 प्रतिशत हुआ, केस डिस्पोजल में 30 प्रतिशत तेजी आई और एक करोड़ से अधिक प्राथमिकी डिजिटल रूप से दर्ज की गई।

राजनीतिक दृष्टिकोण से अमित शाह की पहचान रणनीति, दूरदर्शिता और संगठनात्मक क्षमता के लिए है। उनका साहस और दृढ़ता व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों मोर्चों पर अद्वितीय रहा है। एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में मैंने देखा कि अमित शाह ने सिर्फ कानून लागू नहीं किया, बल्कि विश्वास और जवाबदेही भी बनाई। अपराधी अब सरकार की बदलती राजनीति से नहीं, कानून की शक्ति से डरते हैं।

जब मैं इस पूरे दशक की यात्रा और अनुभवों को याद करता हूं, तो यह स्पष्ट होता है कि अमित शाह केवल नीतिनायक नहीं, बल्कि जननायक से नीतिनायक बने। उन्होंने राजनीतिक दूरदर्शिता, संगठनात्मक क्षमता और व्यक्तिगत साहस के माध्यम से भारत को मजबूत, संवेदनशील और सुरक्षित राष्ट्र बनाया।

उनकी कार्यशैली में लोहे की दृढ़ता और मानवीय ऊष्मा का मिश्रण है। यही उन्हें आज का सबसे प्रभावशाली गढ़नायक बनाता है। बस्तर की पहाड़ियों से लेकर जम्मू-कश्मीर की घाटियों तक, उत्तर-पूर्व के जंगलों से राजस्थान की बस्तियों तक, उनका प्रभाव स्पष्ट है और इसलिए कहा जा सकता है कि अमित शाह केवल सत्ता के संचालक नहीं, उस युग के गढ़नायक हैं जिसमें राष्ट्र और नीति एक दूसरे का पर्याय बन गए हैं।

(लेखक- प्रेम शंकर झा, आईआरएसएस 2008)

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