सुप्रीम कोर्ट। (फाइल फोटो)
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) को कॉरपोरेट पर्यावरणीय जिम्मेदारी से अलग नहीं किया जा सकता। कंपनियां पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के अन्य जीवों की अनदेखी कर स्वयं को सामाजिक रूप से जिम्मेदार नहीं कह सकतीं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चांदुरकर की पीठ ने पक्षियों की विलुप्तप्राय प्रजाति सोन चिरैया (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) के संरक्षण के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए। यह प्रजाति राजस्थान और गुजरात में गैर-नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों के कारण संकट में है।
पीठ ने क्या कहा?
पीठ ने कहा- \“\“सामाजिक उत्तरदायित्व की कारपोरेट परिभाषा में पर्यावरणीय जिम्मेदारी शामिल होनी चाहिए।\“\“ अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 51ए (जी) के तहत वन, झीलों, नदियों और वन्यजीवों समेत प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं संवर्धन करना तथा सभी जीवों के प्रति करुणा रखना प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य है।
पीठ ने स्पष्ट किया कि सीएसआर निधि इस कर्तव्य की मूर्त अभिव्यक्ति है और पर्यावरण संरक्षण के लिए धन का आवंटन एक संवैधानिक दायित्व है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के तहत संसद ने इस कर्तव्य को संस्थागत रूप दिया है। यह प्रविधान इस सिद्धांत को संहिताबद्ध करता है कि कॉरपोरेट लाभ केवल शेयरधारकों की संपत्ति नहीं है, बल्कि समाज की भी है।
पीठ ने निदेशकों के कर्तव्यों में विस्तार करते हुए कहा कि उन्हें कंपनी, कर्मचारियों, शेयरधारकों, समुदाय और पर्यावरण के सर्वोत्तम हित में कार्य करना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा सर्वोपरि दायित्व है और कारपोरेट कर्तव्य केवल शेयरधारकों की रक्षा तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह आदेश पर्यावरणविद् एमके रंजीत सिंह द्वारा 2019 में दायर याचिका पर सुनाया गया, जिसमें ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए कदम उठाने का अनुरोध किया गया था।
मूक जानवरों के प्रति हमेशा रहेगा अदालत का झुकाव: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मूक जानवरों के प्रति अदालत का झुकाव हमेशा रहेगा, क्योंकि जब मनुष्य और व्यावसायिक गतिविधियां उनकी आवाजाही और रहने के स्थानों को अवरुद्ध करती हैं तो वे चुपचाप पीड़ा झेलते हैं। चीफ जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जोयमाल्या बागची और जस्टिस विपुल मनुभाई पंचोली की पीठ ने नीलगिरी के होटल और रिजार्ट मालिकों की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई स्थगित करते हुए यह टिप्पणी की।
शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मुद्दे पर विस्तृत विचार-विमर्श की आवश्यकता है। पीठ ने कहा- \“आप सभी व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए यहां हैं और आपके निर्माण हाथियों के गलियारे में आते हैं। ये निर्माण हाथियों की आवाजाही में बाधा डालते हैंज्। लाभ उन जानवरों को मिलना चाहिए जोकि इन व्यावसायिक गतिविधियों का खामियाजा भुगतते हैं।\“
नीलगिरी के सिगुर पठार में तमिलनाडु सरकार की ओर से हाथियों के गलियारों की अधिसूचना जारी करने के बाद वन क्षेत्रों में स्थित होटल और रिजार्ट संचालकों को यह क्षेत्र खाली करने के लिए कहा गया है।
मद्रास हाई कोर्ट ने 12 सितंबर को शीर्ष अदालत की ओर से नियुक्त समिति की सिफारिश को मंजूरी दे दी थी, जिसमें कहा गया था कि सिगुर पठार के हाथियों के गलियारों में निजी पक्षों द्वारा खरीदी गई जमीन अवैध है और इन निर्माणों को हटाया जाना चाहिए।
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया गया था कि सिगुर में हाथियों के गलियारे के भीतर 39 रिजार्ट और 390 मकान सहित 800 से अधिक निर्माण हैं। शीर्ष अदालत ने मामले की अगली सुनवाई जनवरी के पहले सप्ताह के लिए सूचीबद्ध कर दी।
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