कौन थीं शाहबानो?
एंटरटेनमेंट डेस्क, नई दिल्ली। इंदौर की रहने वाली एक महिला जिसका नाम शाहबानो है जिन्होंने 1978 में अपने पति के खिलाफ भरण पोषण का मुकदमा दायर किया। इस केस ने देशभर की मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
दूसरी पत्नि के लिए पति ने निकाला घर से
दरअसल शाहबानो की शादी एडवोकेट मोहम्मद अहमद खान के साथ 1932 में हुई थी और उनके पांच बच्चे हुए जिनमें तीन बेटे और दो बेटे थे। अपनी शादी के चौदह साल बाद खान ने एक और कम उम्र की महिला से शादी कर ली और अपनी पहली पत्नी और अपने पांच बच्चों से सारे संबंध तोड़ लिए। इस तरह शाहबानो को अपने ससुराल से बच्चो समेत बाहर निकाल दिया। उन्होंने अपने तलाकशुदा पति, मोहम्मद अहमद खान, जो एक प्रसिद्ध वकील थे, से भरण-पोषण की मांग की।
शाहबानो ने पति के खिलाफ दर्ज की थी याचिका
शाह बानो ने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए एक याचिका दायर की, क्योंकि उनके पति ने उन्हें ₹200 प्रति माह देने का वादा किया था, जो उन्होंने उन्हें देना बंद कर दिया था। इस धारा के अनुसार, यदि कोई पत्नी आर्थिक रूप से अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती, तो उसे विवाह के दौरान और तलाक के बाद भी भरण-पोषण करना होगा।
शाहबानो केस ने पूरे देश में मचाया तहलका
1980 के शाहबानो मामले ने भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष की ओर राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। 1978 में, शाहबानो बेगम ने अपने पति मोहम्मद अहमद खान के खिलाफ भरण-पोषण का मुकदमा दायर किया, जिसने लैंगिक न्याय की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संवैधानिक इतिहास में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए, उनके गुजारा भत्ते के अधिकार को बरकरार रखा। हालाँकि, इस फैसले ने एक राजनीतिक तूफान भी खड़ा कर दिया और मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़े मामलों में न्यायपालिका की भूमिका पर तीखी बहस छिड़ गई।
भारत में शाह बानो जैसी कई महिलाओं ने विवाह और तलाक में अपने अधिकारों के लिए व्यक्तिगत कानूनों को चुनौती दी है। यामी गौतम धर और इमरान हाशमी स्टारर और जंगली पिक्चर्स द्वारा निर्मित आगामी फिल्म हक उनके साहस और दृढ़ संकल्प का जश्न मनाती है। हालांकि, खान ने इस दावे का इस आधार पर विरोध किया कि भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार पति को तलाक के बाद केवल इद्दत अवधि के लिए ही भरण-पोषण प्रदान करना आवश्यक है।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने खान के तर्क का समर्थन किया। इसमें कहा गया था कि अदालतें मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, क्योंकि ऐसा करना मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 का उल्लंघन होगा। इस अधिनियम के तहत, अदालतों को तलाक, भरण-पोषण और अन्य पारिवारिक मामलों का फैसला शरीयत के आधार पर करना था।
सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया ये फैसला
सात साल बाद, 1985 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। सवाल यह था कि क्या सीआरपीसी, 1973, जो सभी भारतीय नागरिकों पर, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, इस मामले में लागू हो सकता है। तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ ने सीआरपीसी के तहत शाह बानो को भरण-पोषण देने के उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने भरण-पोषण राशि भी बढ़ा दी।
भारत सरकार ने कानून में किया बदलाव
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कई प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया, जिन्होंने इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप माना। कांग्रेस सरकार, जिसके पास उस समय भारत के संसदीय इतिहास में सबसे बड़ा बहुमत था, ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित करके इस कानून में बदलाव किया। इस नए कानून ने मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद सामान्य नागरिक कानूनों के तहत भरण-पोषण का दावा करने से रोक दिया।
इस अधिनियम के अनुसार, पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी को केवल इद्दत अवधि के दौरान, तलाक के तुरंत बाद लगभग तीन महीने आर्थिक सहायता प्रदान करने की आवश्यकता थी। उसके बाद, उसे भरण-पोषण के लिए अपने रिश्तेदारों और उत्तराधिकारियों पर निर्भर रहना पड़ता था।
हक फिल्म में दिखेगी इनकी कहानी
शाह बानो ने आखिरकार अपना मामला वापस ले लिया, जो राजनीतिक रूप से विवादास्पद हो गया था। 1992 में ब्रेन हैमरेज के बाद उनकी मृत्यु हो गई। इस केस की पूरे देश में चर्चा हुई और इसके बाद कई राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव देखने को मिले। इस केस पर इमरान हाशमी और यामी गौतम स्टारर फिल्म हक आ रही है जो नवंबर 7 को थिएटर्स में रिलीज होगी। हालांकि इस फिल्म का भी खूब विरोध किया जा रहा है, शाहबानो के परिवार ने फिल्म पर रोक लगाने की मांग भी की है।
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