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सुपरस्टार के साथ ब्रांड बनकर उभरे Shah Rukh Khan, दिल्ली की गलियों से कैसे बने बॉलीवुड के बादशाह

cy520520 3 day(s) ago views 652

  

एक सुपरस्टार से ज्याद ब्रांड बनकर उभरे शाह रुख



जागरण न्यूज नेटवर्क। डेविड लेटरमैन से एक बार शाह रुख खान ने कहा था, ‘मैं तो बस शाह रुख खान की मिथक का एक कर्मचारी हूं।’ ज्यादातर लोगों को यह एक मजाक लगा था लेकिन इस कथन के पीछे अपने आप को एक ‘ब्रांड’ के रूप में समझने की गहरी समझ थी। शाह रुख जानते हैं कि वे एक मिथक हैं और यह भी जानते हैं कि उस मिथक को जिंदा रखना, संजोना और आगे बढ़ाना उनका काम है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
दिल्ली की गलियों से बना ब्रांड

शायद यही वजह है कि 60 साल की उम्र में भी वे सिर्फ सुपरस्टार नहीं, बल्कि भारत के सबसे टिकाऊ ‘ब्रांड्स’ में से एक हैं, ऐसा ब्रांड जो किसी मार्केटिंग मीटिंग में नहीं बना, बल्कि उस दौर में पला जब भारत खुद बड़े होने के सपने देखना सीख रहा था। शाह रुख का ब्रांड दिल्ली की मध्यमवर्गीय गलियों से पैदा हुआ, न कि किसी बालीवुड बंगले से।

  

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बाहरी से बादशाह तक

किंग ऑफ रोमांस बनने से पहले या सुपरस्टार कहलाने से पहले वे बस एक बाहरी व्यक्ति थे जो अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा थे। बिना किसी खास वंश या सिफारिश के, जिस पर पूरा शाह रुख खड़ा है। यही वजह है कि वे आज भी मायने रखते हैं। दशकों में शाह रुख ने सिर्फ किरदार नहीं निभाए, उन्होंने भारत के अलग-अलग रूपों को जिया।
संवेदनशीलता का चेहरा

उनका ब्रांड परत दर परत विकसित हुआ हर परत ने उस मिथक को और गाढ़ा किया। सबसे पहले था ‘रोमांटिक हीरो’ जिसने भारतीय पुरुषत्व की परिभाषा बदल दी। नब्बे के दशक में जब नायक मांसपेशियां दिखाता और गरजता था, शाह रुख मुस्कराते थे, सुनते थे, समझते थे। उन्होंने ‘संवेदनशीलता’ को आकर्षक बनाया, भावनाओं को पहचान दी। फिर आया ‘सोचने और बोलने वाला व्यक्ति’ जो अपने दिमाग, कॉमेडी और आत्म-जागरूकता से हर मंच को भर देता था। चाहे वह टॉक शो या अपने घर की बालकनी से संबोधन, वह उस आत्मविश्वासी भारत का प्रतिनिधि था, जिसे खुद को साबित करने की जरूरत नहीं थी। दुनिया में अपनी आवाज तलाश रही एक पूरी पीढ़ी के लिए वह एक आदर्श बन गया।

  

फिर आया पिता का रूप, स्नेही, चंचल, मौजूद रहने वाला पिता। इसी पिता ने अपने बेटे के संकट में बिना एक शब्द कहे, बिना शिकायत किए, पूरे मौन में आंधी झेली। तमाशा बनने के बजाए गरिमा बनाए रखी। फिर आया आइपीएल टीम का मालिक, एक ऐसा किरदार जिससे नई पीढ़ी खास तौर पर जुड़ती है। वह ऐसा मालिक नहीं जो वीआइपी बाक्स में बैठा रहता है, बल्कि वह मैदान में उतरता है, धूप में खड़ा होकर चीयर्स करता है, गले लगाता है, जश्न मनाता है।
पचास में कमबैक और छा गए

उम्र के पचासवें दशक में वे कमबैक करते हैं। इस पड़ाव पर ज्यादातर सितारे जहां अतीत का हिस्सा बन जाते हैं, वहां शाह रुख खान ने फिर से अपने आप को साबित किया। वो भी हो-हल्ले से नहीं, बल्कि दृढ़ इरादे से। शाह रुख खान के ब्रांड की सबसे दिलचस्प बात उनकी फिल्में नहीं, बल्कि उनकी मौजूदगी का दायरा है। वह केवल पर्दे पर नहीं, हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी कहीं न कहीं मौजूद हैं। वह आपके बासमती चावल के पैकेट पर हैं, आपकी कार के विज्ञापन में हैं, आपके पेंट, बिस्किट, घड़ी और मोबाइल फोन तक में हैं। लोग असल में उत्पाद नहीं खरीदते, वे खरीदते हैं वह भाव, जो शाह रुख की मौजूदगी से जुड़ा है- उम्मीद, भरोसा, आकांक्षा, अपनापन और विश्वास।



बहुत कम व्यक्ति, ब्रांड या कार्पोरेट ऐसे हैं जो लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ रखते हुए भी अपनी मूल पहचान को बरकरार रख पाते हैं। शाह रुख खान उन दुर्लभ अपवादों में से एक हैं। एक संघर्षरत मध्यमवर्गीय युवक के लिए वे इस सच्चाई के प्रतीक हैं कि मेहनत और विश्वास ही पर्याप्त हैं। छोटे कस्बों और महानगरों की महिलाओं के लिए वे ऐसे व्यक्ति हैं, जिसने संवेदनशीलता को आकर्षक बना दिया। दादियों के लिए वे वही मोहक लड़का है, जिसने उनकी बेटियों को सपने दिखाए थे। फिल्मकारों और प्रोड्यूसरों के लिए, वह एक गारंटी हैं- अगर शाह रुख हां कह दें, तो दर्शक जरूर आएंगे।

अब सवाल यह है कि साठ की उम्र में शाह रुख खान को कुछ साबित करने की जरूरत नहीं। न एक और ब्लाकबस्टर चाहिए, न कोई नया रिकार्ड तोड़ने की हड़बड़ी। असल सवाल अब यह है कि वह इस समूची विरासत के साथ आगे क्या करेंगे? हर महान सितारे के जीवन में एक क्षण आता है, जब उसे तय करना होता है कि क्या वह वही पुरानी दौड़ जारी रखे या फिर अपनी अगली यात्रा की नई परिभाषा गढ़े।
अमिताभ की तरह, पर अलग राह पर

अमिताभ बच्चन ने उम्र को अपने पक्ष में मोड़ा, उन्होंने उसे ‘कमजोरी’ नहीं, गरिमा का प्रतीक बना दिया। शाह रुख शायद कुछ और कर सकते हैं, कुछ ऐसा जो केवल वही कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने सफलता और असफलता, दोनों को इतनी गहराई से जिया है कि अब उनके पास दोनों की सच्ची कहानी कहने का साहस है।

अब भी वही सपना, वही यकीन


साठ की उम्र में भी शाह रुख वही व्यक्ति हैं, जो दशकों पहले सिर्फ विश्वास के सहारे मुंबई आए थे। आज भी वे उसी तरह के ‘आउटसाइडर’ हैं, जिन्होंने सपना देखा, उसे जिया, गिरे, टूटे, फिर भी हार नहीं मानी और आज भी डटे हैं।
ब्रांड की सच्ची परिभाषा

एक महान ब्रांड उस पर नहीं टिकता कि वह क्या बेचता है, बल्कि उस पर टिकता है कि लोग उसे देखकर क्या मानते हैं। जब लोग शाह रुख खान को देखते हैं, तो उनके भीतर एक सहज विश्वास जागता है- ‘अगर वह कर सकता है, तो मैं भी कर सकता हूं।’ यही भावना, यही आत्मविश्वास वह असली कहानी है जो शाह रुख खान को सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि एक युग का प्रतीक बनाती है। अब बस एक सवाल बचता है- वह इस यकीन के साथ आगे क्या रचेंगे?

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