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झारखंड में सोहराय पर्व: प्रकृति और पशुधन के प्रति आभार का उत्सव

LHC0088 2025-10-21 21:37:41 views 628

  

जमशेदपुर के बालीगुमा में सोहराय के लिए दीवार पर की गई आकर्षक कलाकृति।



जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : झारखंड की धरती पर जब दीपों की लौ मंद पड़ने लगती है, उसी समय गांवों की गलियों में एक नया उजाला फैलता है, सोहराय पर्व का। यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि आदिवासी समाज की जीवनदर्शन से जुड़ी अनोखी परंपरा है। इसमें धरती, जल, हवा और जीव-जंतुओं के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव मौजूद है। इस पर्व के माध्यम से समाज अपनी सांस्कृतिक जड़ों को सींचता है। प्रकृति के प्रति अपनी आस्था को भी जीवंत करता है।
     पूर्वी सिंहभूम और आसपास के गांव करनडीह, सरजामदा, रानीडीह, हलुदबनी, पुरीहासा, तालसा, नरा, काचा, बेड़ाढीपा, बागबेड़ा, गदड़ा गोविदपुर, भिलाईपहाड़ी, बड़ाबांकी, हीराचुन्नी, बेलाजुड़ी, डिमना और बालीगुमा सरीखे विभिन्न गांवों में सोहराय की तैयारियों की धूम है। मिट्टी से लिपे घरों की दीवारें अब कलाकृतियों का कैनवास बन चुकी हैं। आदिवासी महिलाएं और बच्चियां गोबर, मिट्टी, चूना और प्राकृतिक रंगों से अपनी परंपरागत सोहराय पेंटिंग बना रही हैं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें  दीवारों पर बनी कलाकृति जीवन दर्शन का प्रतीक है : दीवारों पर बनाई गई कलाकृति जीवन-दर्शन का प्रतीक है। दीवारों पर की गई सोहराय कलाकृति में पशुओं के झुंड, वृक्ष, पंछी, पहाड़ और पारिवारिक जीवन के दृश्य झलकते हैं। झारखंड जिसे जल, जंगल, जमीन की धरती कहा जाता है, वहां यह पर्व प्रकृति के प्रत्येक तत्व के प्रति सम्मान का संदेश देता है।   मवेशियों के प्रति कृतज्ञता और आस्था: सोहराय पर्व दरअसल मवेशियों के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है। फसल कटाई के बाद किसान अपने बैलों और गायों को स्नान कराते हैं, तेल लगाकर सजाते हैं और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। दीपावली के दूसरे दिन बैलों की पूजा के साथ इस पांच दिवसीय पर्व की शुरुआत होती है। पहले दिन महिलाएं गीत गाती हैं, जो पशुधन की समृद्धि, घर की खुशहाली और परिवार के कल्याण की कामना से भरे होते हैं। मांदर और नगाड़े की थाप पर पुरुष झूमते हैं, महिलाएं पारंपरिक नृत्य करती हैं। गांव की गलियों में गीतों की गूंज, ढोल की थाप और मिट्टी की सुगंध मिलकर एक अद्भुत वातावरण रच देती है।

संस्कृति का संरक्षण और कला की जीवंतता: जमशेदपुर के आसपास के गांवों में इन दिनों हर घर नया रूप ले चुका है। महिलाएं सुबह-सुबह समूह बनाकर गोबर और मिट्टी से दीवार लीपती हैं। इसके बाद खोड़ी (चूना) और लाल, पीले, काले रंगों से प्राकृतिक डिजाइन बनाती हैं। इन चित्रों में गाय, बैल, हाथी, मोर, हिरण और घोड़े जैसी आकृतियां प्रमुख हैं। आदिवासी महिलाओं का कहना है कि वे सालभर इस पर्व का इंतजार करती हैं। यह पर्व अपनी संस्कृति को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम भी है। पेंटिंग के जरिए वे आने वाली पीढ़ी को यह बताती हैं कि हमारी पहचान प्रकृति और पशुधन से है, और इन्हें संरक्षित रखना ही सच्ची पूजा है।

पांच दिन तक नहीं लिया जाता श्रम: सोहराय के दौरान पांच दिन तक गाय-बैलों से कोई कार्य नहीं करवाया जाता। यह विश्राम उनके प्रति सम्मान का प्रतीक है। इन दिनों घरों में तरह-तरह के मीठे पकवान बनाए जाते हैं, गीत-संगीत और नृत्य के साथ गांव में उल्लास का माहौल रहता है। धार्मिक दृष्टि से यह पर्व उस दर्शन को जीवंत करता है, जिसमें हर प्राणी में ईश्वर का वास माना गया है। सोहराय पर्व पारंपरिक आयोजन के अलावा प्रकृति के साथ मनुष्य के सामंजस्य का प्रतीक है। इस पर्व में जीवन के हर तत्व धरती, जल, वायु, अग्नि और आकाश की महत्ता को स्वीकार किया जाता है।
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