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Sunil Gavaskar Column: यह क्यों नहीं कहा जाता कि आप स्पिन खेलना नहीं जानते

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सुनील गावस्कर ने ऑस्ट्रेलिया की पिचों पर उठाए सवाल। फाइल फोटो



सुनील गावस्कर कॉलम। मेरे लिए यह बहुत सौभाग्य की बात थी कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के अपने पहले ही वर्ष में मुझे खेल की उस समय की तीन प्रमुख क्रिकेट राष्ट्रों की यात्रा करने का अवसर मिला। मेरा डेब्यू वेस्टइंडीज सीरीज में हुआ और कुछ महीने बाद इंग्लैंड का दौरा हुआ। हम दोनों ही सीरीज जीतने में सफल रहे। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

यह पहली बार था जब भारत ने इन दोनों टीमों को उनके घर में हराया था। इंग्लैंड दौरे के खत्म होने के मुश्किल से छह हफ्ते बाद यह मेरी बहुत अच्छी किस्मत थी कि मुझे सर डान ब्रैडमैन ने रेस्ट ऑफ द व‌र्ल्ड टीम का हिस्सा बनने के लिए चुना, जिसकी कप्तानी सर्वकालिक महानतम खिलाड़ी में से एक कर रहे थे।

इस टीम ने ऑस्ट्रेलिया का दौरा किया। यह तब हुआ जब ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने साउथ अफ्रीका टीम को पांच टेस्ट मैचों की सीरीज खेलने के लिए दिए गए आमंत्रण को वापस ले लिया था। उस दौरे ने मुझे न केवल क्रिकेट जगत के महानतम खिलाड़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेलने का अवसर दिया, बल्कि यह देखने का भी मौका दिया कि ऑस्ट्रेलिया कितना एकजुट देश है।

मैं उसके बाद कई बार ऑस्ट्रेलिया जा चुका हूं। हाल ही में पिछले वर्ष जब भारतीय टीम ने वहां पांच मैचों की टेस्ट सीरीज खेली थी। मैंने और देशों में यह अक्सर देखा है कि लोग अपने देश की कमियों को लेकर शिकायत करते रहते हैं। राजनीतिक नहीं, बल्कि सामान्य तौर पर देश में किसी चीज की कमी की बात करते हुए। लेकिन ऑस्ट्रेलिया की मेरी सभी यात्राओं में मैंने कभी किसी ऑस्ट्रेलियाई को अपने देश की बुराई करते हुए नहीं पाया।

राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इसके अलावा ऑस्ट्रेलियाई लोग अपने देश के प्रति बेहद गर्व और एकजुटता दिखाते हैं। पहले वर्ष ने मुझे अलग-अलग परिस्थितियों में खेलने और इन देशों की अंपायरिंग को देखने का मौका दिया। मैं इस बात से हैरान था कि कितने गलत फैसले लिए जाते थे। वेस्टइंडीज में फैसले शायद दर्शकों की प्रतिक्रिया के डर से होते थे।

कोई स्थानीय हीरो, खासकर बल्लेबाज को जल्दी आउट देना संभव नहीं माना जाता था। इंग्लैंड में यह चालाकी से होता था, जब टीम मुश्किल में होती तो गलत फैसला आम बात था और वही मैच की दिशा बदल देता। ऑस्ट्रेलिया में तो खुलकर एहसास होता था कि चाहे जो भी हो जाए, ऑस्ट्रेलिया हारा हुआ दिखना नहीं चाहिए। इसलिए अंपायरिंग खुलकर मेजबान टीम के पक्ष में झुकी रहती थी।

एक युवा क्रिकेटर के रूप में मुझे यह देखकर दुख होता था कि हमारे उपमहाद्वीप के अंपायरों को अंग्रेजी या ऑस्ट्रेलियाई मीडिया द्वारा धोखेबाज तक कहा जाता था। वहीं, मैं इस भ्रम में था कि इन देशों की अंपायरिंग लगभग त्रुटिरहित होगी, लेकिन वास्तविकता यह सामने आई कि वहां की अंपायरिंग भी पक्षपात से भरी होती थी।

उपमहाद्वीप के अंपायरों से गलती होती तो उन्हें अपमानजनक नाम दिए जाते थे, लेकिन उनके अंपायरों की गलती को मानवीय भूल कहा जाता था और उपमहाद्वीप की मीडिया उस समय तक अधिकतर पूर्व स्वतंत्रता मानसिकता में थी। इसलिए वे आलोचना करने से बचती थी। अब जब भारतीय क्रिकेट वही इंजन बन चुका है जो एक समय उनकी ताकत और वेटो राइट का आधार हुआ करता था।

इन पुरानी महाशक्तियों ने अपनी नजरें भारतीय पिचों पर टिकाकर उन्हें मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। जब मैं यह कालम लिख रहा हूं, पर्थ टेस्ट मैच दो दिनों से भी कम समय में समाप्त हो गया, जिसमें 32 विकेट गिरे। पहले दिन ही कुल 19 विकेट, लेकिन पिच को लेकर एक शब्द की भी आलोचना नहीं हुई। पिछले साल भी पर्थ में भारत-ऑस्ट्रेलिया मुकाबले में पहले ही दिन 17 विकेट गिरे थे, लेकिन पिच पर जरा भी सवाल नहीं उठा।

सिडनी में भी पहले दिन 15 विकेट गिरे थे। पर्थ के क्यूरेटर का तर्क था कि यह पर्थ है, यहां उछाल मिलेगा ही। यह बिल्कुल ठीक है, लेकिन फिर जब भारत में पिच से टर्न मिलती है तो उसे क्यों स्वीकार नहीं किया जाता कि यह भारत है, यहां टर्न मिलेगी ही। अगर कोई बाउंस की शिकायत करे तो जवाब मिलता है आप तेज गेंदबाजी खेलना नहीं जानते। लेकिन भारत में स्पिन मददगार हो तो यह क्यों नहीं कहा जाता कि आप स्पिन खेलना नहीं जानते।

क्या यह वही पुरानी मानसिकता है, जहां उनकी अंपायरिंग की गलती हो तो मानवीय भूल और हमारी गलती हो तो धोखा? तो क्या यही तर्क अब क्यूरेटर पर लागू हो रहा है वहां की पिच में कोई खोट नहीं, लेकिन भारत की पिच हमेशा संदिग्ध? अच्छा लगा यह देखकर कि अब हमारे कुछ हाल ही में संन्यास ले चुके खिलाड़ी भी पर्थ में पहले दिन 19 विकेट गिरने पर सवाल उठा रहे हैं। तो अब समय आ गया है कि भारतीय क्रिकेट पर उंगली उठाना बंद करो, क्योंकि उसी हाथ की तीन उंगलियां वापस तुम पर ही उठ रही हैं।
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