राहुल गांध और मल्लिकार्जुन खरगे। PTI
सुनील राज, पटना। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कांग्रेस की नजर एक बार फिर सीमांचल की उन सीटों पर टिकी है, जहां उसने 2020 में अच्छा प्रदर्शन किया था। किशनगंज, बहादुरगंज, फारबिसगंज, पूर्णिया सदर, कस्बा, अररिया, कदवा, बरारी, मनिहारी और कोढ़ा जैसी सीटों से कांग्रेस को इस बार भी खास उम्मीद है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
पार्टी का मानना है कि सीमांचल में उसकी जमीनी पकड़ और सामाजिक समीकरण अब भी उसके पक्ष में हैं। यही वजह है कि नतीजों से पहले कांग्रेस का पूरा फोकस सीमांचल के इस भूभाग पर केंद्रित है। पार्टी में इसे लेकर मंथन भी जारी है।
2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इन 10 सीटों में से लगभग आधी सीटों पर जीत दर्ज की थी। किशनगंज, कस्बा, अररिया, कदवा और मनिहारी जैसी सीटें कांग्रेस की झोली में आई थी। उस चुनाव में सीमांचल के कई हिस्सों में कांग्रेस का जनाधार मुसलमानों, दलितों और पिछड़े वर्गों के गठजोड़ से बना था। इस बार भी यही समीकरण पार्टी की उम्मीदों को मजबूत कर रहा है।
पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता असितनाथ तिवारी कहते हैं कि सीमांचल का अधिकांश इलाका कांग्रेस का गढ़ रहा है। इस चुनाव से पहले भी पार्टी ने इस क्षेत्र में संगठन को फिर से जीवित करने की दिशा में काफी मशक्कत की है। ब्लाक स्तर पर कार्यकर्ताओं की सक्रियता बढ़ी है। मुस्लिम बहुल इलाकों में स्थानीय मुद्दों को लेकर पार्टी का जनसंपर्क अभियान भी कांग्रेस को मजबूत कर रहा है।
इस बार कांग्रेस ने सीमांचल के कुछ इलाकों में नए चेहरों पर भरोसा जताया है। पार्टी का आकलन है कि स्थानीय मुद्दों से जुड़े चेहरे जनता के बीच बेहतर स्वीकार्यता रखते हैं। इसी सोच के साथ पार्टी ने किशनगंज में इजहारुल हुसैन की बजाय मो. कमरूल होदा को टिकट देकर खड़ा किया। कस्बा सीट पर विजयी रहे अफाक आलम के स्थान पर इरफान आलम, फारबिसगंज में पिछले उम्मीदवार रहे जाकिर हुसैन की जगह मनोज विश्वास, बहादुरगंज में मो. तौसीफ आलम की बजाय प्रो मशकर आलम, पूर्णिया में इंदू सिन्हा के स्थान पर जितेंद्र यादव को टिकट देकर अपने किले को मजबूत करने की कोशिश की है।
विश्लेषक मानते हैं कि सीमांचल की राजनीति धर्म और विकास दोनों के संतुलन पर टिकी होती है। यहां की आबादी में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में रोजगार, शिक्षा और बुनियादी ढांचे की मांगें भी सियासी विमर्श का केंद्र बनी हैं। कांग्रेस ने इस चुनाव में सीमांचल को लेकर एक खास प्लान तैयार किया था विकास और सम्मान दोनों के नारे के साथ। पार्टी ने सीमांचल के पिछड़ेपन, बाढ़ की समस्या और सीमावर्ती जिलों के लिए विशेष पैकेज जैसे मुद्दों को प्रमुखता दी।
बावजूद कांग्रेस की उम्मीदें जितनी ऊंची हैं, चुनौतियां भी उतनी ही बड़ी हैं। सीमांचल में आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) की मौजूदगी कांग्रेस के लिए सिरदर्द है। 2020 में एआईएमआईएम ने यहां कई सीटों पर कांग्रेस का वोट काटा था। बावजूद पार्टी आशांवित है कि उसे इस बार सफलता मिलेगी जो पिछली बार से बड़ी होगी।
अब 14 नवंबर को जब ईवीएम खुलेंगे, तो यह साफ हो जाएगा कि सीमांचल में कांग्रेस की उम्मीदें जमीन पर उतरीं या नहीं, लेकिन फिलहाल इतना तय है कि बिहार की राजनीति में सीमांचल फिर एक बार कांग्रेस की सियासी धड़कन बना हुआ है। |