संवाद सहयोगी, जागरण, तिर्वा (कन्नौज)। राजकीय मेडिकल कालेज में एमबीबीएस की मान्यता को लेकर चिकित्सा शिक्षकों का स्थानांतरण कानपुर व लखनऊ से किया गया था। तभी डा. शाहीन को भी स्थानांतरण कर भेजा गया था। मान्यता नहीं मिली, तो छह माह बाद वापस कानपुर के लिए स्थानांतरण हो गया था। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
राजकीय मेडिकल कालेज वर्ष 2008 में तैयार हो गया था। कालेज के पहले प्राचार्य डा. आरके गुप्ता रहे थे। वर्ष 2009-10 में एमबीबीएस की मान्यता को लेकर मेडिकल कालेज प्रशासन ने प्रयास शुरू किए थे। इससे शासन स्तर से करीब 40 चिकित्सा शिक्षकों को कानपुर, लखनऊ समेत अन्य मेडिकल कालेजों से स्थानांतरण कर भेजा गया था। तभी डा. शाहीन ने फार्माकोलाजी विभाग में प्रवक्ता पद पर ज्वाइन कर लिया था।
डा. शाहीन ज्वाइन करने वाले दिन मेडिकल कालेज पहुंची थी और फिर एक भी दिन कालेज में ड्यूटी पर नहीं आई थी। मान्यता के मानक पूरे नहीं हो सके, तो कालेज प्रशासन ने मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया को मान्यता के लिए आवेदन नहीं किया था। इससे छह माह बाद डा. शाहीन ने अपना स्थानांतरण वापस कानपुर मेडिकल कालेज में करा लिया था। उस समय मान्यता न होने से छात्रों के प्रवेश भी नहीं हुए थे और शिक्षण कार्य भी नहीं हो रहा था। वर्ष 2012 में एमबीबीएस का पहला बैच आया था।
घमंडी और अकेलेपन की आदी थी शाहीन
राजकीय मेडिकल कालेज में वर्ष 2009 में डाक्टर, स्टाफ नर्स और लिपिक की तैनाती हो गई थी। उस समय काम करने वाले कर्मचारियों ने बातचीत के दौरान बताया कि डा. शाहीन को कालेज में एक-दो बार से ज्यादा नहीं देखा था। स्वभाव से घमंडी थी और तेवर से बात करती थी। अधिकांशत: अकेले में रहती थी और उसकी कार में एक-दो लोग उसके समुदाय के ही बैठे रहते थे।
अपने समुदाय के लोगों से था लगाव
कर्मचारियों ने बताया कि डा. शाहीन फार्माकोलाजी की डाक्टर थी। इससे ओपीडी में नहीं बैठती थी। अगर कोई उसके समुदाय का मरीज आ जाए तो बहुत सम्मान से बात करती थी और दूसरे वर्ग का कोई मरीज सामने खड़ा हो तो अभद्रता कर देती थी। दूसरे वर्ग के लोगों से बोलना भी उसको पसंद नहीं था।
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