गोवा के पूर्व डीजीपी मुक्तेश चंदर। (फाइल फोटो)  
 
  
 
माला दीक्षित, नई दिल्ली। डिजिटल अरेस्ट और साइबर ठगी की घटनाएं लगातार हो रही हैं। इसमें लोगों की जिंदगी भर की कमाई जा रही है। दैनिक जागरण \“ऑनलाइन लुटेरा\“ नाम से अभियान चलाकर जागरूक कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इन घटनाओं पर चिंता जताई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में स्पेशल मॉनिटर फॉर साइबर एंड एआई और गोवा के पूर्व डीजीपी मुक्तेश चंदर मानते हैं कि डिजिटल अरेस्ट का कारण लोगों में जांच एजेंसियों का भय और उनकी डरावनी छवि है। इसी डर से लोग साइबर ठगों के जाल में फंस जाते हैं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें  
 
डिजिटल अरेस्ट जैसी घटनाओं पर कैसे काबू पाया जा सकता है, इस पर मुक्तेश चंदर से दैनिक जागरण की सहायक संपादक माला दीक्षित की लंबी बात हुई। पेश है बातचीत के मुख्य अंश-  
लोग आसानी से साइबर अपराधियों के शिकार क्यों बन जाते हैं?  
 
साइबर क्राइम के तीन स्तर हैं। व्यक्तिगत धोखाधड़ी; कंपनी, बैंक व वित्तीय संस्थानों के साथ हैकिंग आदि और देश या दुनिया के स्तर पर साइबर क्राइम। तीनों का अलग-अलग स्तर है। इससे तीन स्तरों पर निपटना होगा। प्रिवेंशन यानी कैसे रोका जाए, डिटेक्शन यानी कैसे पकड़ा जाए और डिटेरेंट यानी अपराधी में कैसे भय पैदा किया जाए। तीनों स्तर पर हम जो कर रहे हैं, उसमें बहुत कमियां हैं।  
लोग इसमें फंसते कैसे हैं?  
 
मानवीय कमजोरियों के कारण। पूरा मामला हैकिंग ऑफ ह्यूमन माइंड का है। ये एक तरह से साइबर क्राइम है ही नहीं। उसमें तो पूरा सिस्टम हैक होता है। मौजूदा साइबर अपराधों में तो लोगों को डराकर व लालच देकर फंसाया जाता है। व्यक्ति चार कारणों से इसमें फंसता है। भय, लालच, वासना और जिज्ञासा। अपराधी इन कमजोरियों का फायदा उठाते हैं।  
भय किस तरह का?  
 
अपराधी व्यक्ति को सीबीआई, ईडी आदि का भय दिखाते हैं। कहते हैं कि गलत काम में तुम्हारे आधार का उपयोग किया गया है, सीबीआई अधिकारी या ईडी अधिकारी आपसे बात करेंगें। कस्टम में आपके नाम का पार्सल पकड़ा गया है जिसमें नशीले पदार्थ हैं। आम आदमी में इनका इतना डर है कि वे अपराधी के शिकंजे में फंस जाता है।  
जांच एजेंसियों का लोगों में इतना भय क्यों है?  
 
कायदे से जांच एजेंसियों का भय अपराधियों में होना चाहिए, जबकि ये आम जनता में भी है। कमी जांच एजेंसियों की है। इसका कारण है कि कई बार देखा गया है कि किसी पर कोई केस होता है तो वह जेल चला जाता है, उसे जमानत नहीं मिलती। कई वर्ष बाद जब अदालत से बरी होता है तब तक उसका कैरियर, प्रतिष्ठा, पैसा सब बर्बाद हो चुका होता है। जिस पुलिस अधिकारी ने केस बनाया होता है, उसका कुछ नहीं होता। हर स्तर पर जवाबदेही तय होनी चाहिए, ताकि लोगों का सिस्टम में भरोसा बने। लोगों को भरोसा नहीं है कि वे निर्दोष हैं तो सीबीआई या ईडी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।  
साइबर क्राइम की जड़ में क्या है?  
 
साइबर क्राइम के दो बड़े हथियार हैं- सिम कार्ड और बैंक अकाउंट। दोनों की केवाईसी है, पर हजारों सिम कार्ड फर्जी नामों और पहचानों से बिकते हैं। खाते खोलने में फर्जीवाड़ा हो रहा है। कई लोग लालच में अपने खाते का उपयोग अपराधियों को करने देते हैं। सिम कार्ड और बैंक खातों के फर्जीवाड़े पर जैसा काम होना चाहिए, वैसा नहीं हुआ। अनचाही कालों को रोकने के लिए \“डू नाट डिस्टर्ब\“ यानी डीएनडी को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। जब आप अनचाही काल नहीं रोक पाए तो साइबर क्राइम को क्या रोकेंगे। अगर डीएनडी को ठीक से लागू कर दिया जाए तो आधा साइबर क्राइम तो वैसे ही रुक जाएगा।  
साइबर ठगी पर रोक कैसे लगे?  
 
दूरसंचार विभाग की टेलीकाम एनफोर्समेंट, रिसोर्स एंड मानीटरिंग (टीईआरएम) सेल है। वह एक फर्जी सिम कार्ड पाए जाने पर टेलीकाम कंपनी पर 50,000 रुपये जुर्माना लगाती है। उससे पूछा जाए कि उसने कितने मामलों में जुर्माना लगाया है। जब मैं गोवा में डीजीपी था तो मैं लगातार ऐसे मामलों में टेलीकाम कंपनियों पर जुर्माना लगाने के मामले भेजता था और टीईआरएम से रिपोर्ट मांगता था। लेकिन टीईआरएम सिर्फ नोटिस भेजने की बात बताती थी, जुर्माने की जानकारी नहीं देती थी। जब टेलीकॉम कंपनियों से जुर्माना वसूला जाएगा तो इस पर रोक लग सकती है। बैंक खातों में बैंकों की मिलीभगत है। बैंकों के पास हर खाते की जानकारी होती है। भारत सरकार की फाइनेंशियल इनवेस्टीगेशन यूनिट होती है, उसे देखना चाहिए कि इतना पैसा कहां से आ-जा रहा है।  
साइबर अपराधियों में भय कैसे पैदा हो?  
 
सबसे पहले यह पता लगाने की जरूरत है कि साइबर क्राइम की कितनी शिकायतें आती हैं, उनमें से कितने में एफआइआर व गिरफ्तारी होती है, फिर कितने में आरोपपत्र दाखिल होता है और सजा होती है। इसका अभी कोई आंकड़ा नहीं है। इसका अध्ययन करके आंकड़े एकत्र किए जाने चाहिए ताकि पता चले कि ये अपराध कहां तक फैला है और इसे रोकने के लिए क्या करने की जरूरत है। पूरे ईको सिस्टम को समझे बिना इसे कंट्रोल करना मुश्किल है। यहां सजा की मात्रा नहीं, सजा सुनिश्चित करना जरूरी है। तभी इस पर रोक लग सकती है। कानून में कोई कमी नहीं है। यह सब धोखाधड़ी है, उसका कानून मौजूद है जिसे लागू करने की जरूरत है।  
अगर कोई डिजिटल अरेस्ट हो जाए तो कैसे पहचाने और तत्काल क्या करे?  
 
कानून में डिजिटल अरेस्ट जैसी कोई चीज नहीं है। यह सिर्फ भयवश स्वयं बांधा गया फंदा है। अगर कोई कहता है कि आप अब डिजिटल अरेस्ट में हैं, तो व्यक्ति को तत्काल फोन काट देना चाहिए। कंप्यूटर बंद कर देना चाहिए और पुलिस से शिकायत करनी चाहिए कि फलां नंबर से डिजिटल अरेस्ट का फोन आया था। 1930 नंबर पर भी रिपोर्ट करें। डिजिटल अरेस्ट में तो व्यक्ति खुद ही खुद को बंधक बना लेता है, उसके दरवाजे तो अरेस्ट करने के लिए तो कोई खड़ा नहीं होता।  
डिजिटल अरेस्ट की घटनाएं इतनी बढ़ रही हैं तो क्या इससे डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने के उद्देश्य को धक्का नहीं लगेगा?  
 
ऐसा नहीं है। किचन के चाकू से हाथ कट सकता है, इस कारण उसका इस्तेमाल तो बंद नहीं किया जा सकता। ऐसे ही डिजिटल पेमेंट चालू रहेगा। व्यक्ति को अधिक सावधान रहने की जरूरत है। पेमेंट करते समय जांच लेना चाहिए कि किसको पेमेंट किया जा रहा है। इंटरनेट एक जंगल है जहां अच्छे, बुरे, भयानक और खतरनाक जीव व वनस्पतियां मौजूद हैं। आपको इस जंगल से गुजरना है, इसलिए हर समय आंख-कान खुले रखिए। साइबर सिक्योरिटी में धीरे-धीरे जीरो ट्रस्ट का सिद्धांत लागू हो गया है। मतलब हर व्यक्ति को धोखेबाज समझो। साइबर अपराध में अपराधी अ²श्य है। उससे बचने के लिए सावधानी जरूरी है।  
 
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