यूएनएचसीआर के तहत विदेशी नागरिकों के लिए वैध वीजा का विकल्प नहीं: हाई कोर्ट।
विनीत त्रिपाठी, नई दिल्ली। एक अफगान नागरिक की याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) प्रमाणन, विदेशी अधिनियम के तहत विदेशी नागरिकों के लिए वैध वीजा का विकल्प नहीं है।
न्यायमूर्ति संजीव नरूला की पीठ ने कहा कि मानवीय दृष्टिकोण से प्रासंगिक होते हुए भी यूएनएचसीआर किसी व्यक्ति को भारतीय नगर पालिका कानून के तहत कोई कानूनी दर्जा प्रदान नहीं करता है।
यह वैध वीजा का विकल्प नहीं हो सकता है या भारत में निरंतर निवास को अधिकृत नहीं कर सकता है। अदालत ने उक्त टिप्पणी लामपुर स्थित डिपोर्टेशन सेंटर से रिहा करने का अधिकारियों को निर्देश देने की मांग वाली अफगान नागरिक कादिर अहमद की याचिका पर की। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
कादिर अहमद को भारत में प्रवास के दौरान 2016 में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पुलिस थाने में की गई प्राथमिकी के तहत गिरफ्तार किया गया था और बाद में उसे विदेशी अधिनियम-1946 की धारा 14 के तहत दोषी ठहराया गया था।
अगस्त 2024 में हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि अहमद को पहले ही बिताई गई अवधि के लिए सजा सुनाई जा चुकी थी। हालांकि, सजा सुनाने वाली अदालत अपने आदेश में डिपोर्टेशन की कार्यवाही का निर्देश नहीं दे सकती थी।
शर्त को संशोधित कर अहमद को सात दिनों के भीतर एफआरआरओ के समक्ष उपस्थित होने के लिए बाध्य किया गया। अहमद ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) द्वारा जारी एक प्रमाण पत्र का हवाला देकर अपने डिपोर्टेशन का विरोध किया।
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हालांकि, पीठ ने उसके तर्क को निराधार बताते हुए कहा कि भारत शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित 1951 के कन्वेंशन या 1967 के प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। पीठ ने कहा कि भारत में किसी विदेशी की उपस्थिति पूरी तरह से गैरकानूनी है।
पीठ ने कहा कि अदालत मनमाने या गैरकानूनी डिपोर्टेशन को रोकने के लिए हस्तक्षेप कर सकती है, लेकिन भारत में निवास के अधिकार को मान्यता देने या बनाने के लिए कानून में ऐसा कोई अधिकार मौजूद नहीं है।
विदेशी अधिनियम के तहत दोषी ठहराए जाने के कारण अदालत ने कहा कि भारत में रहने की वैध अनुमति के बिना कादिर अहमद डिपोर्टेशन सेंटर से रिहाई की मांग नहीं कर सकता है।
अदालत ने कहा कि भारत सरकार द्वारा शरणार्थी की स्थिति को मान्यता न दिए जाने या वैध वीजा न होने की स्थिति में याचिकाकर्ता की हिरासत से रिहाई की प्रार्थना स्वीकार नहीं की जा सकती है।
अदालत ने याचिका का निपटारा करते हुए करते हुए प्राधिकारियों को यह अधिकार दिया कि वे हिरासत के दौरान अहमद की चिकित्सा और मानवीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कानून के अनुसार उसके निर्वासन की कार्यवाही पूरी करें।
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