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Rupee at record low : रुपया रिकॉर्ड निचले स्तर पर, 89 रुपए प्रति डॉलर के पार, निवेशकों पर क्या होगा इसका असर?

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Dollar Vs Rupee : शुक्रवार 24 नवंबर को डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 89.49 रुपये के रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गया। डॉलर की घरेलू मांग बढ़ने से रुपए पर दबाव बना है। लोकल करेंसी में तेज़ गिरावट से आमतौर पर इक्विटी मार्केट में कुछ समय के लिए रिस्क-ऑफ (जोखिम से बचने) का माहौल बनता है, क्योंकि ज़्यादा इंपोर्टेड महंगाई,बढ़ती लागत और इंपोर्ट करने वाली कंपनियों पर दबाव जैसी चिंताएं पैदा होती हैं।



लेकिन, इस हफ़्ते रुपए में यह तेज़ गिरावट तब आई है जब दुनिया भर में माहौल शांत है। इससे ट्रेडर्स हैरान हैं और करेंसी मार्केट पर उनका फोकस और बढ़ गया है। CR फॉरेक्स एडवाइजर्स के मुताबिक, रुपये में गिरावट इसलिए अलग लग रही है, क्योंकि ग्लोबल संकेत लगभग फ्लैट हैं, डॉलर इंडेक्स स्थिर है, कच्चे तेल की कीमतों में कोई बदलाव नहीं हुआ है और उभरते हुए बाज़ारों की करेंसीज में भी कोई दबाव नहीं दिख रहा है।



ब्रोकरेज फर्म ने आगे कहा, “डॉलर की सप्लाई में कमी और इसकी ज़बरदस्त मांग से लिक्विडिटी का गैप बन गया है। RBI, जो चुपचाप 88.80 के लेवल का बचाव कर रहा था,अब एक तरफ हट गया है, जिससे स्टॉप-लॉस ऑर्डर और बढ़-चढ़कर दांव लगने शुरू हो गए हैं“।




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रुपये में भारी गिरावट आमतौर पर इक्विटी मार्केट के सेंटिमेंट पर असर डालती है। मेहता इक्विटीज के राहुल कलंतरी ने कहा कि रुपए में तेज़ गिरावट से आमतौर पर इक्विटी मार्केट में कुछ समय के लिए रिस्क-ऑफ (जोखिम से बचने) का माहौल बनता है, क्योंकि ज़्यादा इंपोर्टेड महंगाई,बढ़ती लागत और इंपोर्ट करने वाली कंपनियों पर दबाव जैसी चिंताएं पैदा होती हैं।



रुपए में गिरावट से ज्यादा वैल्यूएशन और लेवरेज वाले मिडकैप और स्मॉलकैप शेयरों में ज़्यादा दबाव होता है। उन्होंने आगे कहा कि FIIs आमतौर पर तब डिफेंसिव हो जाते हैं जब रुपया नए निचले स्तर पर पहुंचता है, क्योंकि इससे डॉलर-एडजस्टेड रिटर्न कम हो जाते हैं और वोलैटिलिटी बढ़ जाती है।



चॉइस वेल्थ के अक्षत गर्ग ने भी इसी बात को दोहराते हुए कहा कि रुपए की कमजोरी “आमतौर पर इक्विटी में शॉर्ट-टर्म सावधानी की भावना पैदा करती है।” इसके चलते रेट-सेंसिटिव और हाई-वैल्यूएशन वाले शेयरों से FII की निकासी शुरू हो सकती है। लेकिन उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि भारत की स्ट्रक्चरल कहानी मज़बूत बनी हुई है, ऐसे में जब तक मैक्रो स्टेबिलिटी बनी रहती है तब तक कोई भी करेक्शन “हल्का” ही होगा।



इसके विपरीत, जियोजित इन्वेस्टमेंट्स के वी के विजयकुमार का मानना ​​है कि इस समय रुपये में गिरावट से “मार्केट पर ज़्यादा असर पड़ने की उम्मीद नहीं है“, खासकर तब जब वैल्यूएशन अच्छे हो गए हैं। उन्हें उम्मीद है कि दुनिया भर में AI ट्रेड के कमज़ोर होने के साथ FIIs जल्द ही भारत की तरफ रुख करेंगे। इससे करेंसी को स्थिर होने में मदद मिल सकती है।



इन सेक्टरों को हो सकता है नफा-नुकसान



करेंसी में गिरावट से साफ़ तौर पर सेक्टर के हिसाब से फायदे और नुकसान तय होते हैं। इससे एक्सपोर्ट पर आधारित इंडस्ट्रीज़ को फ़ायदा होगा,क्योंकि डॉलर से ज़्यादा रेवेन्यू मिलने से रुपये की कमाई बढ़ेगी। विजयकुमार ने कहा कि रुपए की कमजोरी से टेक्सटाइल, फार्मास्यूटिकल्स, जेम्स एंड ज्वेलरी और IT को फ़ायदा हो सकता है। कलंतरी और गर्ग ने इस लिस्ट में फार्मा एक्सपोर्टर्स, केमिकल्स, स्पेशलिटी केमिकल्स, टेक्सटाइल्स और ऑटो एंसिलरीज़ को भी जोड़ा।



वहीं, दूसरी तरफ जिन सेक्टर्स में ज़्यादा इंपोर्ट होता है, उन्हें फौरी तौर पर मार्जिन पर दबाव का सामना करना पड़ेगा। एविएशन और ऑयल मार्केटिंग कंपनियों को बढ़ी फ्यूल और क्रूड ऑयल लागत का सामना करना पड़ता है। इलेक्ट्रॉनिक्स, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और ऑटो, जिनमें बड़े इंपोर्ट कंपोनेंट्स होते हैं, उनका प्रॉफिट भी कम हो सकता है। गर्ग ने कहा कि कोयले के इंपोर्ट पर निर्भर पावर यूटिलिटीज़ और कैपिटल गुड्स मैन्युफैक्चरर्स को भी इसका असर महसूस हो सकता है, जबकि फाइनेंशियल्स को इनडायरेक्ट महंगाई का दबाव झेलना पड़ सकता है।



FII की करेंसी की कमजोरी के बजाय अर्निंग में सुधार पर रहेगी नजर



हालांकि करेंसी की कमजोरी से FII बिदक जाते हैं, लेकिन इस बार उनका रिएक्शन हल्का हो सकता है। विजयकुमार का मानना ​​है कि विदेशी निवेशक, जो रुपये से ज़्यादा वैल्यूएशन को लेकर परेशान थे, अर्निंग की विज़िबिलिटी बेहतर होने पर भारत की तरफ वापस आ सकते हैं। गर्ग ने कहा कि अगले 3 से 12 महीनों में, FII सिर्फ़ करेंसी के बजाय ग्लोबल रेट के संकेतों और घरेलू अर्निंग्स पर ज़्यादा फोकस करेंगे।



क्रूड ऑयल की नरमी, डॉलर के ठंडे होने और RBI के दखल से राहत की उम्मीद



ज़्यादातर एक्सपर्ट्स मानते हैं कि यह दर्द अस्थाई हो सकता है। संभावित इंडिया-US ट्रेड डील से ट्रेड डेफिसिट कम हो सकता है और करेंसी को स्टेबल करने में मदद मिल सकती है। रिकवरी के मेन ट्रिगर्स में क्रूड ऑयल की नरमी, डॉलर का ठंडा होना और वोलैटिलिटी को मैनेज करने के लिए RBI का लगातार दखल शामिल हैं। एनालिस्ट्स को उम्मीद है कि अगर ये चीज़ें एक साथ होती हैं तो रुपया अगले तीन से चार क्वार्टर में ज़्यादा स्टेबल रेंज में आ जाएगा।



  



  



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