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Vivah Panchami 2025: प्रेम और भक्ति का प्रतीक है विवाह पंचमी, जानें इससे जुड़ी रोचक बातें

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Vivah Panchami 2025: विवाह पंचमी विशेष।



स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। जनक जी के पुण्यों का सुफल श्रीसीता है। दशरथ जी के सुकृत पुण्य श्रीराम के रूप में उनके यहां पधारे। विवाह मंडप में राम-जानकी जब विराजमान हुए, तब दशरथ जी के रोम-रोम में आनंद भर गया। पुलकित होकर वे अपने सुकृत से उत्पन्न वृक्षों में नए-नए फलों को देख रहे हैं। वे फल मानो सीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति के रूप में पल्लवित हो रहे हैं, जिसके कारण राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न पुष्पित और सुगंधित हो रहे हैं। जनक जी को ज्ञान का फल भक्ति के रूप में मिल रहा है। जब मोक्ष, धर्म, काम तथा अर्थ सब कुछ शरीर धारण करके उनसे संबंध करने उनके घर आ गए। दशरथ जी को भक्ति का फल ज्ञान के रूप में प्राप्त हो रहा है। भक्ति सीता के रूप में श्रद्धा मांडवी, योग क्रिया उर्मिला और दान क्रिया श्रुतिकीर्ति जी के रूप में ज्ञान की चरम परिणति उनको प्राप्त हो गई। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

  

जनक सुकृत मूरति वैदेही।
दसरथ सुकृत राम धरे देही।।

श्रीराम जब अपने परिशुद्ध हृदय-पराग को सिंदूर के रूप में श्रीसीता के मांग में भरते हैं, तब तुलसीदास जी ने कहा कि भगवान के हाथ का पंजे वाला भाग है- कमल का फूल और कलाई से नीचे का भाग है सर्प। वह कह रहे हैं कि आज सर्प अमृत के लोभ में चंद्रमा को विभूषित करना चाह रहा है। वस्तुत: सर्प ने कभी अमृत नहीं देखा। सीता जी का मुख है चंद्रमा, जो अमृतत्व से परिपूर्ण है। चंद्रमा ने विष कभी नहीं देखा, जो भगवान का हाथ है। भगवान आज सीता जी के मुखचंद्र के सामने अमृत के लोभ से अपने नीलवर्ण के विषत्व को निष्कलंकित करने के लिए गौरवर्ण की अमृतमय सीता को अपना हृदय-पराग भेंट कर उनको निश्चिंत कर रहे हैं कि जब सर्प ही स्वयं आपकी मांग में आपको सौभाग्य का सिंदूर दे रहा है तो अब आपके सौभाग्य को कोई नहीं मिटा सकता है।  

उधर सर्प ने भी अमृत का स्वाद कभी नहीं चखा है, मानो भगवान श्रीराघवेंद्र कह रहे हैं कि आपको सौभाग्यवती बनाने से मुझे भी अखंड अमृतत्व की प्राप्ति सहज ही हो जाएगी। यह विवाह ज्ञान और भक्ति का मिलन है। पुरुष का सबसे बड़ा पुरुषार्थ समर्पित हो जाने में है तथा स्त्री का सर्वोत्कृष्ट त्याग पुरुष को अमृतत्व प्रदान करना है। भगवान श्रीसीताराम का विवाह केवल दो शरीरों का मिलन मात्र नहीं है, यह तो वह अलौकिक पर्व है, जिसमें ज्ञान, भक्ति, ध्यान, समाधि, योग, लोक, वेद, जाति, धर्म, क्रिया, पुरुषार्थ सबका मिलन और पूर्णता हो जाती है। श्रीराम और सीता के विवाह में न जाने कितने असंभव मिलन संभव हो गए। वैदिक गुरु वशिष्ठ, लौकिक गुरु विश्वामित्र जी, भगवान के विवाह ने ही इन दोनों को समान सम्मान दिलाकर उनकी उपयोगिता और प्रासंगिकता सिद्ध की है।

वेद मंत्रों से लेकर जेवनार के समय दी जाने वाली मधुर गालियों का समायोजन और स्वीकृति राम विवाह में ही संभव हुआ। यहां तक कि कोहबर की रीति को भी गोस्वामी तुलसीदास ने समाहित कर लिया। जहां पर वर के अतिरिक्त मात्र स्त्रियां ही होती हैं। वर के प्रति कन्या पक्ष की स्त्रियों के द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिसमें दूल्हे को क्रोध आ सकता है। राम के शील की सबसे बड़ी विजय भी यहां हुई। सीता जी की सखियों ने यह तक कह दिया कि राम ने यदि घनुष तोड़ा तो वह हमारी पूजा, साधना और देवताओं से की गई प्रार्थना का फल है, राम की इसमें कोई विशेषता नहीं। वे तो अहिल्या को पत्थर से चैतन्य कर देने को भी सीता के नगर जनकपुर में आते हुए मार्ग की धूल को श्रेय देती हैं। लेकिन, भगवान को क्रोध नहीं आया। लक्ष्मण जी को सुनकर क्रोध आया, पर उसका भी सदुपयोग यह हुआ कि उर्मिला जी को लक्ष्मण के राम के प्रति प्रेम और समर्पण की शिक्षा मिल गई। स्त्री और पुरुष के आपसी समर्पण और पारिवारिकता के प्रसंग श्रीरामचरितमानस में मिलते हैं।

सीता जी विवाह मंडप में अपने प्रियतम श्रीराम की दिव्य छवि को अपने हाथों में पहने कंकण की मणियों में देख रही हैं। मर्यादा के कारण सिर उठाकर या मुड़कर नहीं देख सकती हैं तो राम हाथों में दिखाई देने लगे। हाथ हिल जाने से कहीं राम कंकण में दिखाई देने बंद न हो जाएं, इसलिए वह अपने हाथों को स्थिर रखे हुए हैं। हाथ कर्म का प्रतीक है। हमारे कर्मों में कहीं त्रुटि हुई तो ईश्वर हमसे दूर हो जाता है। भगवान पीला दुपट्टा कांखासोती पहने हैं। वह काखासोती इतनी झीनी है कि उनके दिव्य रूप शरीर का दर्शन भी हो रहा है। भांवरों के समय मंडप में जो मणियां लगी हुई हैं, उनमें बिंब रूप दूल्हा-दुल्हन सीता-राम जी का प्रतिबिंब उन मणियों में दिखाई दे रहा है। गोस्वामी जी कहते हैं कि मणियों में पड़ने वाले उन हजारों प्रतिबिंब को देखकर लग रहा है कि मानो कामदेव और रति अपनी कामवृत्ति से विरत होकर अनगिनत शरीर धारण करके इस दिव्य बिंब को देखने के लिए आ गए हैं।

रामसीय सुंदर परिछाहीं जगमगात मनि खंभन माहीं।

कामदेव को बार-बार संकोच हो रहा है। वह कभी दिखाई देता है, कभी छिप जाता है। इसको देखकर विदेहमूर्ति परम ज्ञानी जनक जी स्वयं अपने आप को भूल जाते हैं कि मैं कौन हूं- जनक समान अपान बिसारे। संबंध में भावना और वाणी का बड़ा महत्व होता है। राजा जनक अपने छोटे भाई कुशध्वज के साथ हाथ जोड़कर महाराज दशरथ से कहते हैं कि हम आज आपसे संबंध जोड़कर हर तरह से बड़े हो गए। हमारे राज्य में जो कुछ भी है, वह सब आपका ही है। यह ज्ञानमयी भाषा है कि जब हमने पुत्री सीता को आपके पुत्र राम को सौंप दिया तो अब हम और हमारा सब कुछ आपका हो गया। महाराज दशरथ जी ने अपने चारों पुत्रों और पुत्र वधुओं को ले जाकर गुरु वशिष्ठ को प्रणाम कराया और कहा कि आपकी कृपा से मैं पूर्णकाम हो गया। प्रारब्ध जब सुकृत होता है तो फल की प्राप्ति कृपा लगती है, कृपा सर्वदा सुकृतज्ञ होती है। कृपा समर्पित होती है, भाग्य अपने को कर्ता मानता है।


माताएं सीता जी को गोद में बैठाकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम सास-ससुर और गुरु की सेवा करना। सुनयना जी अपने दामाद श्रीराम से कहती हैं,  हे मेरे प्रिय राम! आप पूर्णकाम हैं। सुजानशिरोमणि हैं, भक्तों के भावों को ग्रहण करने वाले हैं, दोषों का नाश करना आपका सहज स्वभाव है। आप दया के धाम हैं, कहकर सुनयना की वाणी अवरुद्ध हो गई। यह भक्त और भगवान के बीच संवाद है। सीता जी की विदाई के समय जनकपुर के पशु-पक्षी भी व्याकुल हो गए। सबके नेत्रों में प्रेमाश्रु छलकने लगे। मन समेत जिसको वाणी जान नहीं सकती, वेद भी जिसका अनुमान ही करते हैं, वे राम मेरी दृष्टि, वाणी और सेवा के विषय बन कर हमारे यहां पधार गए, यह सब सुखों का आश्रय रूप है।


अयोध्या में माताओं ने जब अपने पुत्रों को बहुओं के साथ देखा, तब तुलसीदास जी ने उपमाओं का ढेर लगा दिया कि जैसे योगी को परम तत्व मिल गया हो। जन्म के रोगी को अमृत मिल गया हो। जन्मजात भिखारी को पारस पत्थर मिल गया हो। अंधे को आंखें मिल गई हों। गूंगे को वाणी मिल गई हो। योद्धा को युद्ध में विजय मिल गई हो...। किसी ने कहा कि अब तो सुख का वर्णन हो गया? गोस्वामी तुलसीदास जी ने भाव को अनिर्वचनीय बनाते हुए कहा, इन सुखों को सौ करोड़ से गुणा कर दो, इतना सुख माताओं को मिल रहा है।


एहि सुख ते सतकोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुल चंदु।।

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