मतदान कर दूसरे राज्य कमाने चले श्रमिक। फोटो जागरण
अक्षय पांडेय, पटना। जंक्शन पर खड़ी विक्रमशिला एक्सप्रेस की जनरल बोगी यात्रियों से ठसाठस है। सिर इतने दिख रहे हैं कि अब न कोई बाहर आ सकता, न अंदर जा सकता है। दिल्ली दूर है और जुगाड़ तगड़ा। दो सीटों के बीच गमछा बांध झूलते हुए जाने की व्यवस्था कर ली है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
गुलाबी ठंड की दस्तक के बीच यात्रियों की संख्या से अब इस ट्रेन से गर्मी की भभक ही निकल सकती है। दीपोत्सव पूर्ण हुए 22 और छठ संपन्न हुए 14 दिन हो गए हैं। फिर नवंबर की 11 तारीख को ट्रेन इतनी खचाखच भरी कैसे?
वैसे प्रमाण अंगुली पर लगा निशान दे रहा है, पर ये प्रश्न बोगी के अंदर पूछा जाए या बाहर, उत्तर एक ही है। त्योहार की तरह लोकतंत्र में आस्था है। रोजगार राज्य के बाहर है। उम्मीद ये, सरकार ऐसी हो कि मत देने के लिए यात्रा न करनी पड़े।
सोचने को विवश करती है श्रमिक की जागरूकता
दीवाली-छठ से मत देने के लिए रुके रहने की बात समझ आ जाती है। मजदूरी करने वाले एक दंपती का उत्तर ये सोचने को मजबूर करता है कि आम लोग इतने जागरूक हैं। श्रमिक पति-पत्नी कहते हैं हम केवल मत देने दिल्ली से आए थे।
हमारे बिहार में रहने का समय 24 घंटा भी नहीं हुआ है, अब लौट रहे हैं। इस दौरान जो खर्च हुआ है, उसकी भरपाई होने से दो-तीन महीने लग जाएंगे, पर मत नहीं देंगे, तो पांच साल देश की राजधानी में सरकार की कमी या खूबी की चर्चा कैसे कर सकेंगे।
ट्रेन रुकी और चल दी, बैठते रहे यात्री
यात्रियों की संख्या इतनी है कि जैसे अकाल तख्त एक्सप्रेस विक्रमशिला से प्रतिस्पर्धा कर रही हो। बिहार के सबसे व्यस्ततम रेलवे स्टेशन पटना जंक्शन पर ट्रेन रुकी और चलने लगी, इस बीच यात्रियों के चढ़ने की संख्या कम नहीं हुई। ठेलम-ठेल...।
जिन्हें सीट मिल गई, वे अपनी जिंदगी की सुखद यात्रा में इसे शामिल करेंगे। ट्रेन के गेट की सीढ़ियों पर जो बैठ गए, वो यह कहते हुए संतुष्ट हैं कि मानो हम थर्ड एसी में हैं। हवा खाते-खाते अमृतसर पहुंच जाएंगे।
मैं झाझा का रहना वाला हूं। अमृतसर में नौकरी है। तत्कालीन व्यवस्था से खुश हूं। पढ़ने की अच्छी व्यवस्था है। सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से खर्च भी दे रही है। इंदिरा आवास है। घर में मेरी बेटी सुरक्षित है। अपराध घटा है, पर ये नहीं कह सकते कि कम है। अब सरकार आए, तो और बेहतर कार्य करे। -रामविलास रावत
मैं अरवल का रहना वाला हूं। छठ पर घर आया था। सूरत जा रहा हूं। जिन युवाओं ने जंगलराज देखा नहीं, वे भी सुरक्षा की बात कर रहे हैं। जो व्यवस्था है, वो बुरी नहीं है। परिवर्तन होना, तो अगली सरकार को काफी कार्य करने पड़ेंगे। जब किसी को अवसर मिलेगा, तब न पता चलेगा कि कौन कितने पानी में है। -शिवनाथ
मैं रहने वाला राजगीर का हूं। अगर चुनाव नहीं होता, तो कब का मैं लुधियाना लौट गया होता। सुरक्षा व्यवस्था बड़ा मुद्दा है। परिवर्तन हुआ, तो सुरक्षा वैसी ही मिलेगी? इसकी गारंटी कौन लेगा। जो सरकार है, वही आएगी, तबभी कमाने के लिए बाहर जाना होगा। सत्ता को पलायन रोकने पर विचार करना चाहिए। मैं राज्य की तरक्की के लिए मत देने को रुका था। -निरंजन
मैं जालंधर जा रहा हूं। हाजीपुर का रहने वाला हूं। छठ के बाद लौट गया था। मत देने दोबारा आया हूं। एक मात्र उद्देश्य और बेहतर व्यवस्था बनाने का है। इस बात से खुश हूं कि अंगुली पर स्याही लगी है। पहले दिल्ली में रहता था। राज्य भर बदला है, किस्मत नहीं। बिहार में फैक्ट्री हो। निजी कंपनी में रोजगार मिले, मैं इतने में ही प्रसन्न रहूंगा। -नीरज कुमार
बिहार में क्या और कितना बदल सकता है, जनता सब सबझ चुकी है। मैं पटना के बिक्रम में रहता हूं। पंजाब में नौकरी करता हूं। जनता को लंबे-लंबे स्वप्न दिखाए जा रहे हैं। हर दल करोड़ों रोजगार की बात कर रहा है। घर में 20 हजार रुपये की प्राइवेट नौकरी मिल जाए, तो भी क्या कम है। -रमेश
त्योहार और लोकतंत्र का पर्व की तिथि लगभग साथ ही थी। ऐसे में अंगुली पर स्याही लगाने में परेशानी हुई। मत करना बड़ी जिम्मेदारी है। मुझे तत्कालीन से अच्छी व्यवस्था चाहिए। सरकारी कार्यों में ढीलापन है। शायद उन्हें लगता है कि हम ही रहेंगे। ये दावा टूटना चाहिए। -सुनील साव
श्रमिक हूं। भागलपुर से पंजाब जा रहा हूं। हम इतने गए गुजरे हैं कि केवल ईंट-पत्थर ही ढोएंगे। हमारी नियति इससे ऊपर नहीं हो सकती। हम में कमी नहीं। सरकार के पास रोजगार नहीं है। सब ऑनलाइन-ऑनलाइन कर रहे हैं। पैन और आधार कार्ड को लेकर लाइन में लगना पड़ता है। -स्माइल
पटना में रहता हूं। पुस्तक खरीदने वाराणसी जा रहा हूं। जमीन पर केवल सुरक्षा की बात हो रही है। शिक्षा और रोजगार देने की तो दौड़ लगी है। दोनों घोषणा पत्र में सिमट कर रह जा रहे हूं। इतनी नौकरी की बात हो रही। कैसे और किस विभाग में मिलेगी, भगवान ही जानते हैं। -राहुल कुमार
सरकार अपील करती है कि लोकतंत्र के पर्व में सहभागी बनिए। हम श्रमिक हैं। सोचिए, भागलपुर में मत देकर अभी 24 घंटे नहीं हुए हैं। वापस दिल्ली जाना है। हमसे जागरूक कौन होगा। ये कैसी व्यवस्था है। मत देने के लिए टिकट खरीदें? हमारी उम्मीद अधिक नहीं थी, काम नहीं हुआ है। -अनिल हरिजन |