सांकेतिक तस्वीर।
सुमन सेमवाल, जागरण देहरादून: सुरक्षित भविष्य के लिए इतिहास में झांकना भी जरूरी हो जाता है। ताकि पूर्व की घटनाओं और उसके प्रभावों से सीख लेकर भविष्य की दिशा में मजबूत कदम बढ़ाए जा सकें।
आइआइटी कानपुर और बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान के विज्ञानियों ने अलकनंदा घाटी में इतिहास की ऐसी भीषण बाढ़ों के प्रमाण खोज निकाले हैं, जो जलवायु परिवर्तन के दौर में आगे की नीति बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं।
शोध में ल्यूमिनेसेंस बुरियल डेटिंग तकनीक का उपयोग कर यह पता लगाया गया कि बदरीनाथ क्षेत्र में सरस्वती नदी (अलकनंदा की सहायक नदी) के किनारे मेगाफ्लड (अत्यंत भीषण और उच्च वेग वाली विनाशकारी बाढ़ें) कब और कैसे आईं।
यह तकनीक पहली बार बड़े कंकड़ों (कबल्स) पर लागू की गई है, जिससे यह समझना संभव हुआ कि भूस्खलन से बनी अस्थायी झीलें कैसे टूटती थीं और उनके टूटने से अचानक आई बाढ़ें सैकड़ों टन पत्थर नीचे घाटियों तक कैसे ले जाती थीं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
यह शोध वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान में आयोजित छठी राष्ट्रीय ल्यूमिनेसेंस डेटिंग एंड इट्स एप्लिकेशन कार्यशाला में रखा गया। शोध में विज्ञानियों ने उजागर किया कि घाटी में 20 मीटर ऊपर तक जमा कंकड़ों की मोटी परत स्पष्ट संकेत देती है कि यह अत्यंत विशाल बाढ़ों का काम है।
दरअसल, माणा गांव के पास सरस्वती नदी की दाहिनी ढलान पर लगभग 40 मीटर मोटी तलछट परत मिली। इसमें 03 से 30 सेंटीमीटर आकार के गोल, चिकने कंकड़ के साथ बीच-बीच में महीन बालू-बजरी की परतें और ऊपरी हिस्से में झील तलछट (लेक डिपाजिट्स) शामिल हैं।
तथ्य यह बताता है कि यह कोई सामान्य नदी बाढ़ नहीं थी, बल्कि झील टूटने से आई विशाल वेग वाली बाढ़ थी, जिसने भारी पत्थरों को 20 मीटर ऊपर तक उठाकर जमाया।
अस्थायी झील बनी, जो टूट गई
विज्ञानियों ने पाया कि एक बड़े राक एवलांच ने नदी को अवरुद्ध किया, जिससे घाटी में झील बनी। बाद में यह झील अचानक टूटी और बहाव ने बड़े पत्थर, बोल्डर और महीन तलछट को कई किलोमीटर दूर तक पहुंचा दिया।
यह घटना बिल्कुल वैसी ही थी जैसा आजकल जीएलओएफ (ग्लेशियल लेक आउटब्रस्ट फ्लड) में होता है। हालांकि, इस दिशा में अभी शोध गतिमान है। इसलिए बाढ़ की स्पष्ट अवधि सार्वजनिक नहीं की गई है।
तकनीक ने ऐसे खोले इतिहास के राज
ल्यूमिनेसेंस डेटिंग से कंकड़ों के दफ्न होने की उम्र का पता चला। जिसके लिए शोधकर्ताओं ने नई तकनीक राक सर्फेस बुरियल डेटिंग आफ फ्लूवियली ड्राइवन कबल्स अपनाई। स्पष्ट हुआ कि कंकड़ कब सूर्य की रोशनी से दूर जमीन के अंदर दबे यानी किस बाढ़ ने उन्हें यहां लाकर जमा किया।
क्योंकि, जब कंकड़ नदी में बहते हैं, तो उनकी सतह धूप में आती है और ल्यूमिनेसेंस सिग्नल मिट जाता है। जब वे मिट्टी/तलछट में दब जाते हैं, तो फिर से सिग्नल भरना शुरू होता है। चट्टान की गहराई के अनुसार यह सिग्नल कैसे बढ़ा, यही बाढ़ के समय का अंदाजा देता है।
हिमालय में कई ऐतिहासिक बाढ़ें अभी तक इसी तरह अज्ञात थीं। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा में भी झील टूटने का तत्व प्रमुख था। यह शोध हिमालय के भू-इतिहास को समझने और भविष्य के बाढ़ जोखिमों की चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि है।
अध्ययन में इसकी अवधि को सिर्फ लेट क्वार्टनरी (अंतिम चतुर्थकालीन अवधि) नाम दिया है। यह इतिहास के एक लाख वर्षों के बीच की अवधि को दर्शाता है।
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