दिनभर सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई का इंतजार करते रहे बनभूलपुरा के लोग। आर्काइव
ललित मोहन बेलवाल, हल्द्वानी। बुधवार को रोजाना की तरह मुर्गे ने सुबह-सुबह बांग दी। अपनी पूरी लालिमा के साथ सूरज उगा, चिड़ियाओं का झुंड भी अपने घोंसलों से निकलकर दाना चुगने के लिए उन्मुक्त गगन में विचरण करने निकला। लेकिन इस गुलाबी ठंड वाली दिसंबर की सुबह बनभूलपुरा वालों के लिए सिर्फ इतनी भर नहीं थी। उनके चेहरे पर थी बेचैनी, निगाहों पर आस और करने के लिए उनके पास था सिर्फ इंतजार कि उनका भविष्य क्या होगा। क्या सुप्रीम कोर्ट उन्हें राहत देगा या उन्हें यहां से जाना होगा। जाना होगा तो वे कहां जाएंगे? लेकिन बुधवार को भी उनको इन सवालों का जवाब नहीं मिल पाया। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
बनभूलपुरा रेलवे भूमि प्रकरण में बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी। हर कोई फैसले को लेकर बेचैन था। सुबह मस्जिदों में नमाज पढ़ने के बाद बाहर आए लोग आपस में कहने लगे कि दुआ मांगी है, ऊपर वाला रहम करेगा। धीरे-धीरे दिन चढ़ता गया, क्षेत्र के स्कूलों और मदरसों में छुट्टी होने के चलते बच्चे गलियों में खेलते दिखे।
जितनी बेफिक्री उनमें दिख रही थी, उतने ही फिक्रमंद युवा, महिलाएं और बुजुर्ग नजर आए। सुबह 11 बजते-बजते लोग आपस में बात करने लगे, कितने बजे तक सुनवाई होगी, कोर्ट में कौनसा नंबर है। इतने में लंबे बालों वाला नई उम्र का लड़का बोला- चचा बता रहे हैं 23वें नंबर पर लगा है केस, पता नहीं आज फैसला आता है या नहीं। इतने में दूसरा लड़का बोला, नहीं-नहीं, आज तो फैसला आ ही जाएगा, देख रहा है कितनी पुलिस लगी है। इसी तरह की बातें दिनभर पूरे बनभूलपुरा में सुनने को मिलीं।
दोपहर में दो बजते-बजते लोगों का इंतजार अपने चरम पर पहुंच गया। आम लोगों से लेकर पुलिसकर्मी भी यही कहने लगे, बस आज ही आ जाए फैसला। इतने में गफूर बस्ती में गली के कोने से बूढ़ी महिला की आवाज आई, हम कहां जाएंगे, हमें पहले कहीं बसाना चाहिए। महिला की आवाज में अपने परिवार के भविष्य के लिए दर्द था। वहीं यहां से कुछ दूर लाइन नंबर 17 में एक बैंक के पास खड़े अधेड़ उम्र के व्यक्ति कहने लगे, रेलवे स्टेशन के आसपास अतिक्रमण तो 2007 में ही ठीकठाक हटा दिया गया था जब बुलडोजर चला था, लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं, फिर आकर बस गए।
अब सूरज की तपिश थोड़ी कम होने लगी थी, अपराह्न साढ़े तीन बज चुके थे, दुकानों पर चाय की चुस्की लेते लोग, घरों की खिड़कियों से झांकतीं महिलाओं को अब लगने लगा था कि इंतजार की रातें अभी कुछ दिन और करवट बदलते हुए काटनी पड़ेंगी। कुछ देर बाद साफ हो गया कि आज सुनवाई नहीं हो पाई। और शाम होते-होते थक हारकर ये चेहरे उसी सवाल के साथ मायूसी में डूब गए कि हमारा भविष्य क्या होगा...
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