प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को यह संकल्प दोहराया कि देश 10 सालों में “गुलामी की मानसिकता“ से मुक्त हो जाएगा और लॉर्ड थॉमस मैकाले की “गुलाम भारतीय शिक्षा प्रणाली“ को उलट देगा। अयोध्या में राम मंदिर पर केसरिया ध्वज फहराने के बाद भाषण देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, “मैकॉले की सोच बहुत व्यापक थी। हम आजाद तो हो गए, लेकिन हीन भावना से खुद को अब तक मुक्त नहीं कर पाए।”
प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत ने भले ही अंग्रेजों से आज़ादी हासिल कर ली हो, लेकिन भारतीयों के मन में जो हीन भावना भर दी गई थी, उससे आज भी पूरी तरह आज़ादी नहीं मिली है।
उन्होंने कहा, “हमारे मन में यह सोच बिठा दी गई कि विदेश से आने वाली हर चीज अच्छी है, और अपनी चीजों में खामियां हैं। इसी गुलामी वाली मानसिकता के कारण हमने लोकतंत्र भी बाहर से लिया। हमारा संविधान भी विदेशी देशों से प्रेरित है। जबकि सच्चाई यह है कि भारत लोकतंत्र की जननी है… लोकतंत्र तो हमारे DNA में है।”
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यह पहली बार नहीं है, जब प्रधानमंत्री ने ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ मैकॉले का जिक्र किया है।
रामनाथ गोयनका लेक्चर
17 नवंबर को छठे रामनाथ गोयनका लेक्चर में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत में मैकॉले की सोच और उसके प्रभाव को मिटाने के लिए अगले 10 साल बेहद महत्वपूर्ण होंगे, यानी 2035 तक, जब मैकॉले की शिक्षा नीति के 200 साल पूरे होंगे।
उन्होंने 1835 में बनाई गई मैकॉले की शिक्षा नीति को कोसते हुए कहा कि इससे भारत में गुलामी वाली मानसिकता पैदा हुई।
प्रधानमंत्री ने कहा, “हमारी शिक्षा में पहले कौशल और ज्ञान दोनों पर जोर दिया जाता था। इसी रीढ़ को तोड़ने के लिए मैकॉले ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को बदला और वह इसमें सफल भी हुआ। उसने अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी सोच को ज्यादा महत्व दिया, और भारत ने इसकी कीमत कई सदियों तक चुकाई।”
PM मोदी ने यह भी कहा कि शासन प्रणाली और इनोवेशन के लिए लगातार पश्चिम की तरफ देखने की आदत ने भारतीयों को गांधीजी की स्वदेशी सोच से दूर कर दिया।
मैकॉले कौन था?
थॉमस बैबिंगटन मैकॉले (1800–1859) एक ब्रिटिश इतिहासकार और नेता थे। वह 1834 से 1838 तक गवर्नर-जनरल की परिषद के सदस्य रहे।
भारत में उनके समय में उन्होंने देश की शिक्षा, संस्कृति और कानून को पश्चिमी ढांचे के अनुसार बदलने की कोशिश की। इसी वजह से वह ब्रिटिश शासन के सबसे प्रभावशाली चेहरे माने जाते हैं।
भारतीय शिक्षा और कानून पर मैकॉले का प्रभाव
1835 में, मैकॉले ने “मिनिट ऑन एजुकेशन” नाम से एक दस्तावेज जारी किया। इसमें उसने तर्क दिया कि ब्रिटिश सरकार को अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए।
इसके बाद धीरे-धीरे अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई को प्राथमिकता दी गई और संस्कृत व दूसरी भारतीय प्रणालियों को पीछे कर दिया गया।
मैकॉले पहले भारतीय विधि आयोग के चेयरमैन भी थे। उनके नेतृत्व में भारतीय दंड संहिता (IPC) का ड्राफ्ट 1837 में तैयार किया गया। यह कानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में इस्तेमाल हुआ और भारत में स्वतंत्रता सेनानियों को सजा देने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया। भारत ने पिछले साल इन औपनिवेशिक कानूनों की जगह भारतीय न्याय संहिता (BNS) लागू की।
मैकॉले पर आलोचकों की राय
औपनिवेशिकता (colonialism) पर काम करने वाले कई आलोचक मैकॉले पर सांस्कृतिक दबदबे और नस्लवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं।
अंग्रेजी संस्कृति अपनाने वाले भारतीयों को कभी-कभी “मैकॉले की संतानें” कहा गया। कुछ लोगों के लिए यह पहचान उनके अपने मूल से दूर जाने का प्रतीक थी।
लेकिन ऐसे कई शिक्षित भारतीय- जैसे भीमराव अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू भारत के इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण रहे। नेहरू ने भी लिखा था कि मैकॉले ने अंग्रेजी शिक्षा इसलिए दी ताकि ब्रिटिश हित पूरे हों, न कि भारतीयों के विकास के लिए। फिर भी, वह मानते थे कि अंग्रेजी भाषा ने भारत को दुनिया से जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई।
BJP और RSS की मैकॉले पर सोच
प्रधानमंत्री मोदी लंबे समय से मैकॉले की सोच से “मुक्ति” की बात करते रहे हैं। उन्होंने साफ किया कि वह अंग्रेजी भाषा के विरोधी नहीं हैं।
लेक्चर में PM ने कहा कि जापान, चीन और दक्षिण कोरिया ने कई पश्चिमी तकनीकें अपनाईं, लेकिन अपनी मातृभाषा को नहीं छोड़ा। इसीलिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) में स्थानीय भाषाओं को विशेष महत्व दिया गया है।
सरकार की राय में अंग्रेजी भाषा से समस्या नहीं है; समस्या है भारतीय भाषाओं की उपेक्षा से।
RSS भी लंबे समय से कहता रहा है कि “मैकॉले की संतानें” वह लोग हैं, जिनमें एक औपनिवेशिक मानसिकता बस गई है, और जिन्होंने ब्रिटिश सोच के कारण भारत को कमतर मान लिया।
PM मोदी ने श्री राम दरबार गर्भ गृह में दर्शन और पूजा की |