दिव्यांग को सहारा देकर सड़़क पार कराती अनीता।
जागरण संवाददाता, जमशेदपुर। अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस पर झारखंड के नोवामुंडी प्रखंड ने ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की है। यह प्रखंड पूरे राज्य में पहला स्थान बन गया है, जहां शत-प्रतिशत दिव्यांगजन सरकारी योजनाओं से जोड़ दिए गए हैं। यह उपलब्धि सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि समावेशी विकास के उस मॉडल की सफलता है, जिसे टाटा स्टील फाउंडेशन ने अपनी महत्वाकांक्षी पहल ‘सबल’ के माध्यम से मूर्त रूप दिया है। ग्रामीण भारत में दिव्यांगता अक्सर अदृश्य पीड़ा बनकर रह जाती है। न समय पर पहचान, न प्रमाणपत्र, न योजनाओं की जानकारी, इन सबके कारण ज्यादातर दिव्यांग मुख्यधारा से दूर रह जाते हैं। इस चुनौती को दूर करने के उद्देश्य से वर्ष 2017 में शुरू हुई सबल पहल आज वटवृक्ष का रूप ले चुकी है। यह मॉडल आइडेंटिफिकेशन-सर्टिफिकेशन-सैचुरेशन (ICS) पर आधारित है, जिसके तहत यह सुनिश्चित किया गया कि एक भी पात्र व्यक्ति छूट न जाए। टाटा स्टील फाउंडेशन के अनुसार, इस परिवर्तन के पीछे सबसे बड़ी भूमिका उन 135 आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की रही, जिन्हें दिव्यांगता की 21 श्रेणियों की पहचान के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया गया। ये कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर न केवल संभावित दिव्यांगजनों की पहचान करती रहीं, बल्कि उन्हें प्रमाणन और योजनाओं से जोड़ने में भी सेतु बनीं। पूरी प्रक्रिया को डिजिटल और पारदर्शी बनाने में ‘सबल डिजिटल ऐप’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे पंचायत से प्रखंड और जिला स्तर तक डेटा सटीक और व्यवस्थित रूप में उपलब्ध रहा। यह पहल केवल प्रमाणपत्र देने तक सीमित नहीं रही। टाटा स्टील फाउंडेशन ने बताया कि अब तक 292 दिव्यांगजनों को आजीविका के स्थायी साधनों से जोड़ा गया है, जिससे वे आर्थिक रूप से मजबूत हो सके। किसी को पशुपालन, किसी को दुकान, तो किसी को रोजगारपरक किट उपलब्ध कराई गई। दृष्टिबाधितों के सशक्तिकरण के लिए आइआइटी दिल्ली के सहयोग से ‘ज्योतिर्गमय’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम ने दृष्टिबाधितों के जीवन में डिजिटल साक्षरता का प्रकाश फैलाया है। बैंकिंग, मोबाइल उपयोग, ऑनलाइन पठन-पाठन और सूचना तक पहुंच, अब ये सभी सुविधाएं उनके लिए सुलभ हैं। टाटा स्टील फाउंडेशन का कहना है कि नोवामुंडी का मॉडल दान नहीं, बल्कि बेहतर प्रशासनिक दृष्टि और सुविचारित सामाजिक इंजीनियरिंग का परिणाम है। यह पहल साबित करती है कि यदि नीयत में संवेदना और नीति में स्पष्टता हो, तो किसी भी क्षेत्र में बड़ा बदलाव संभव है। नोवामुंडी की यह सफलता अब झारखंड और ओडिशा के अन्य जिलों के लिए भी प्रेरक मॉडल बन रही है। स्वयं सहायता, गरिमा और अधिकार, इन तीन स्तंभों पर खड़ा यह अभियान उन दिव्यांगजनों के लिए नई उम्मीद लेकर आया है, जो वर्षों से उपेक्षा के अंधकार में जी रहे थे। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें |