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क्लाउड सीडिंग के पक्ष में नहीं है IIT दिल्ली, लेकिन आईआईटी कानपुर की राय अलग; क्या है वजह?

LHC0088 2025-11-27 01:13:50 views 945

  

आईआईटी कानपुर को अगले ट्रायल के लिए उपयुक्त बादलों का इंतजार (फाइल फोटो)



संजीव गुप्ता, जागरण, नई दिल्ली। प्रदूषण से जंग में दिल्ली में क्लाउड सीडिंग का अध्याय अभी बंद नहीं हुआ है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) का कहना है कि आईआईटी कानपुर को अगले ट्रायल के लिए उपयुक्त बादलों का इंतजार है। जब भी 30 से 50 प्रतिशत तक की नमी वाले बादल होंगे, आईआईटी-के क्लाउड सीडिंग का अगला ट्रायल करेगा। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

हालांकि, आईआईटी दिल्ली के विशेषज्ञों ने प्रदूषण की रोकथाम के लिए क्लाउड सीडिंग की उपयोगिता को सिरे से नकार दिया है। आईआईटी-डी के वायुमंडलीय विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में कहा गया है कि सर्दियों के महीनों में दिल्ली की जलवायु क्लाउड सीडिंग के लिए कतई उपयुक्त नहीं है। वजह, इस दौरान बादलों में नमी कम रहती है। सबसे अधिक प्रदूषित महीनों दिसंबर एवं जनवरी में क्लाउड सीडिंग सफल होने की संभावना काफी कम रहती है।
क्लाउड सीडिंग के लिए पश्चिमी विक्षोभ की जरूरत

इस अध्ययन में कहा गया है कि ये महीने सबसे अधिक प्रदूषित और शुष्क होते हैं। ऐसे में क्लाउड सीडिंग के लिए पश्चिमी विक्षोभ की जरूरत होगी। सर्दियों में बादल इसी से बनते हैं लेकिन अच्छे बादलों वाले दिनों में भी क्लाउड सीडिंग के लिए उनमें पर्याप्त नमी नहीं होती। मतलब, मजबूत पश्चिमी विक्षोभ के दिनों में भी क्लाउड सीडिंग के जरिये अच्छी वर्षा होने की प्रबल संभावना नहीं होती।

इस अध्ययन में कहा गया है कि दिल्ली में सर्दियों के दौरान ऐसे दिन औसतन पूरे महीने में एक या दो ही होते हैं, जब क्लाउड सीडिंग की जा सके। औसत खराब संभावनाओं के बीच एक दशक (2011 से 2021) में सिर्फ 92 दिन बादलों में पर्याप्त नमी रही। इन्हीं दिनों मध्यम से तेज वर्षा भी हुई। यह अध्ययन आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर सागनिक डे और प्रोफेसर शहजाद गनी समेत कई अन्य विज्ञानियों ने मिलकर किया है।
\“क्लाउड सीडिंग भरोसेमंद तरीका नहीं\“

अध्ययन में यह तथ्य भी सामने आया है कि वर्षा में भले ही पीएम 2.5 और पीएम 10 धुल जाते हों, लेकिन ओजोन के प्रदूषण पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है। वर्षा के बाद इसका स्तर तेजी से बढ़ता है। ऐसे में क्लाउड सीडिंग को प्रभावी कहना गलत है। वहीं, शुष्क पश्चिमी विक्षोभ से क्लाउड सीडिंग के आसार 10 से 20 प्रतिशत कम हो जाते हैं। इस अध्ययन के अनुसार, दिल्ली का उच्च प्रदूषण स्तर बादलों के निर्माण की प्रक्रिया को जटिल बना देता है।

क्लाउड सीडिंग को केवल एक भारी लागत वाला, आपातकालीन एवं अल्पकालिक समाधान माना जाना चाहिए, न कि एक भरोसेमंद या मुख्य तरीका। इसके बजाय, उत्सर्जन में कमी को ही दीर्घकालिक समाधान बताया गया है। आईआईटी दिल्ली के अध्ययन के मुख्य ¨बदु- अप्रयुक्त वातावरण: दिल्ली की सर्दियों (दिसंबर-जनवरी) में बादलों में पर्याप्त नमी और संतृप्तता नहीं होती, जो प्रभावी क्लाउड सीडिंग के लिए आवश्यक है।

उच्च एरोसोल स्तर: दिल्ली में अत्यधिक एरोसोल (सूक्ष्म कण) मौजूद होते हैं, जो बादल बनने में तो मदद कर सकते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वे वर्षा में भी बदलें।
तकनीकी चुनौतियां: एरोसोल की परतें जमीन के करीब होती हैं, जबकि बादल बनने की परतें ऊपर (दो से पांच किमी) होती हैं, जिससे सीडिंग के लक्ष्यों तक पहुंचना तकनीकी रूप से मुश्किल हो जाता है।
अल्पकालिक समाधान: रिपोर्ट के अनुसार, क्लाउड सीडिंग को केवल एक संभावित उच्च-लागत वाला, आपातकालीन और थोड़े समय के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उपाय माना जाना चाहिए, जो कड़े पूर्वानुमान पर निर्भर हो।
दीर्घकालिक समाधान: प्रदूषण की समस्या का वास्तविक और दीर्घकालिक समाधान निरंतर उत्सर्जन में कमी है।
पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं: रिपोर्ट में यह भी चेतावनी दी गई है कि सिल्वर आयोडाइड जैसे रसायनों के पर्यावरणीय और स्वास्थ्य प्रभावों का मूल्यांकन जरूरी है।
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