जीनोम एडिटेड धान से जुड़े दावों पर उठे सवाल, जीएम-फ्री इंडिया संगठन ने कहा ICAR की रिपोर्ट से मेल नहीं खाते आंकड़े

Chikheang 2025-10-30 19:43:00 views 1132
  

क्या है जीनोम एडिटेड चावल की सच्चाई?



Genome-edited rice controversy: इस वर्ष मई में जारी जीनोम-एडिटेड धान की दो किस्मों पूसा डीएसटी-1 और डीआरआर धान 100 (कमला) को लेकर नया विवाद खड़ा हो गया है। कोएलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया (Coalition for a GM-Free India) ने गुरुवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि इन किस्मों की सफलता को लेकर जो दावे किए गए हैं, वे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अपने आंकड़ों से ही मेल नहीं खाते। संगठन का कहना है कि उसने अपने दावे के लिए आईसीएआर के ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन राइस (AICRPR) की 2023 और 2024 की वार्षिक रिपोर्ट के आंकड़ों को आधार बनाया है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

संगठन ने कहा, “जैसा पहले बायोटेक लॉबी बीटी बैंगन और जीएम सरसों के मामलों में करती रही हैं, उसी तरह अब जीनोम-संपादित चावल की किस्मों को ‘भारत के लिए चमत्कारी बीज’ बताया जा रहा है। बिना ठोस जांच और आंकड़ों के इस तरह के दावों से भारत की वैज्ञानिक संस्थाएं बदनाम होती हैं और आईसीएआर एवं अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों की साख पर धब्बा लगता है।” इसका कहना है कि रेगुलेटरी जरूरतों के साथ समझौता करते हुए जीनोम एडिटिंग करना अपने आप में जीएम फसलों की विफलता को स्वीकार करना है।
मई 2025 में जारी हुई थीं धान की किस्में

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 4 मई 2025 को दो जीनोम-संपादित धान की किस्मों पूसा डीएसटी-1 और डीआरआर धान 100 ‘कमला’ को जारी करते हुए इसे विश्व में पहला बताया था। दावा किया गया (ICAR claims questioned) कि खारी और क्षारीय मिट्टी के लिए पूसा डीएसटी-1, गैर जीएम MTU–1010 (कॉटन डोरा सन्नलू) किस्म के मुकाबले बेहतर है। इसी तरह BPT 5204 (सांबा महसूरी) से तैयार कमला को 17% अधिक पैदावार, 20 दिन पहले तैयार होने और नाइट्रोजन का बेहतर उपयोग करने वाली किस्म कहा गया।

लेकिन कोएलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया (GM-Free India critique) का कहना है कि इन दावों को प्रमाणित करने वाले ठोस आंकड़े मौजूद नहीं हैं। बल्कि आईसीएआर की अपनी रिपोर्ट ही उसके दावों को गलत साबित करती हैं।
दावों में कितनी सच्चाई

पूसा डीएसटी-1 के बारे में संगठन का कहना है, “आईसीएआर की रिपोर्ट में बताया गया है - 2023 के लिए सूखा या खारापन सहनशीलता के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि बीज पर्याप्त नहीं थे, 2023 के परीक्षण में इसका उत्पादन MTU-1010 के बराबर या 4.8% तक कम रहा, 20 में से 12 स्थानों पर इस किस्म की उत्पादकता मूल किस्म के मुकाबले कम रही, 2024 में भी खारी मिट्टी में परीक्षणों में इसमें कोई खास बढ़त नहीं मिली जबकि क्षारीय मिट्टी में केवल 1.6% का मामूली सुधार दर्ज किया गया।” फिर भी रिपोर्ट के समरी टेबल में 20 में से 8 परीक्षणों के आधार पर ‘30% अधिक उत्पादन’ का भ्रामक दावा किया गया।

कमला किस्म के बारे में संगठन का कहना है, “इसे चमत्कारी बीज कहा गया और बताया गया कि इसकी यील्ड 17% अधिक है, पौधे कम समय में तैयार होते हैं और इनमें बेहतर नाइट्रोजन उपयोग की क्षमता है। लेकिन आंकड़े कुछ और ही बयान कर रहे हैं। 2023 में 19 में से 8 परीक्षण स्थलों पर कमला ने खराब प्रदर्शन किया। पूर्वी और मध्य जोन में इसका प्रदर्शन पेरेंट वैरायटी के मुकाबले खासा बुरा था। दक्षिणी जोन में उत्पादकता में केवल 4.3% वृद्धि दर्ज हुई।”

“2024 में कई स्थानों के आंकड़े बिना कारण हटाए गए, और केवल 6 साइट से मिले आंकड़ों के आधार पर 17.21% बढ़त अधिक पैदावार का दावा किया गया। औसत उत्पादन 4% कम था और पौधों के 20 दिन जल्दी तैयार होने के दावे का भी कोई सबूत नहीं मिला।”

बुनियादी मानकों में भी विरोधाभास देखा जा सकता है। संगठन का कहना है कि प्रति वर्गमीटर पुष्प गुच्छ (पैनिकल) की गिनती, 50% फूल आने में लगने वाले दिन और दानों की गुणवत्ता आदि से जुड़ी जानकारियों को मनमाने ढंग से दर्ज किया गया है। मिसाल के तौर पर 50% फूल आने में लगने वाले दिनों (DFF) पर AICRPR की सालाना रिपोर्टों में कोई ऐसा आंकड़ा नहीं जो कमला और उसकी मूल किस्म के बीच 20 दिन का अंतर दिखाता हो। रिपोर्ट के अनुसार कमला का औसत DFF 101 दिन है जबकि उसकी मूल किस्म का 104 दिन।
सभी आंकड़े साझा करने की मांग

शोधकर्ता और बायोटेक्नोलॉजिस्ट सौमिक बनर्जी ने सवाल किया कि “अगर यह तकनीक इतनी ही सुरक्षित, सटीक और प्रभावशाली है तो बाकी सभी GMO संबंधी अध्ययनों की तरह उचित परीक्षण करने और उससे जुड़े सभी आंकड़ों और जानकारियों को साझा करने में क्या मुश्किल है?”

जीएम फ्री इंडिया कोएलिशन की सदस्य और एक्टिविस्ट कविता कुरुगंटी ने कहा, “यह करोड़ों किसानों के जीवन और आजीविका के साथ खतरनाक खिलवाड़ है। यह बुनियादी मानवाधिकार का मसला है और इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। ईमानदार वैज्ञानिक यह सुनिश्चित करें कि देश के वैज्ञानिक संस्थानों की साख पर बुरा असर न पड़े।”
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