जीवन को आसान बनाने के लिए बदलाव को करें स्वीकार, खुशियों से भर जाएगा घर-संसार

LHC0088 2025-10-6 20:46:32 views 1103
  Shrimad Bhagwat: संस्कृत शब्द मन्वंतर का अर्थ है मनु की आयु





आचार्य नारायण दास (आध्यात्मिक गुरु, श्रीभरत मिलाप आश्रम मायाकुंड, ऋषिकेश)। श्रीमद्भागवतमहापुराण धर्म, दर्शन और आचार का अक्षय स्रोत है। इसमें जीवन और जगत के परमसत्य का विवेचन है। जब राजा परीक्षित मृत्यु का समय समीप देखकर जीवनोत्तर मार्ग के प्रति व्याकुल हुए, तब शुकदेवजी ने उन्हें भागवत के दस लक्षणों का निरूपण किया। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

ये लक्षण मानव-जीवन के संचालन और समुत्थान के लिए शाश्वत मार्गदर्शक हैं। ये हमें बोध कराते हैं कि जीवन ईश्वर की देन है, जिसे धर्म और भक्ति से संवारना चाहिए। नश्वरता का बोध हमें आसक्ति से बचाता है और परमसत्य यह है कि भगवान के चरणों में शरण ही जीवन-दर्शन का शिखर है।


मन्वंतर :

महाराज शुकदेवजी उपदेशित करते हैं कि जो भगवद्भक्ति और प्रजापालनरूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, वही मन्वंतर कहलाते हैं। संस्कृत शब्द मन्वंतर का अर्थ है मनु की आयु। चौदह मन्वंतरों और उनके अधिपतियों को मिलाकर एक कल्प बनता है। जब एक मन्वंतर समाप्त होता है, तब प्रलय आती है और धरती से समस्त चराचर भगवान में ही विलीन हो जाते हैं।

इसके उपरान्त पुनः सृष्टिक्रम का श्रीगणेश होता है। जगत का शाश्वत नियम परिवर्तन है। जीवन भी इसी नियम का अंग है। समय-समय पर धर्म, समाज और विचार नए रूप ग्रहण करते हैं। दार्शनिक तथ्य यही है कि परिवर्तन ही जीवन है। उसे स्वीकार करना ही विवेक है। जो व्यक्ति समय के साथ अपने आचरण और विचारों में शुद्ध परिवर्तन लाता है, वही जीवन में सफलता और संतुलन प्राप्त करता है।


निरोध :

जगत की संपूर्ण गति का अपने मूल में लय होना निरोध है। जब परमेश्वर योगनिद्रा में शयन करते हैं, तब संपूर्ण सृष्टि अपनी उपाधियों सहित उन्हीं में विलीन हो जाती है। जैसे अंधकार में सभी रंग लुप्त हो जाते हैं, वैसे ही भगवान का निरोध समस्त प्राणियों और पदार्थों को अपने मूल में समेट लेता है।

दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। श्रीकृष्ण ने भी गीता में प्रतिपादित किया है- “जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: ध्रुवं जन्म मृतस्य च।” धन, वैभव, यश सब क्षणभंगुर हैं। मृत्यु का स्मरण ही जीवन को गंभीर और अर्थवान बनाता है। जैसे यात्री सराय में थोड़ी देर रुककर आगे बढ़ जाता है, वैसे ही जीव इस अनित्य संसार में आकर पुनः अनंत में विलीन हो जाता है।


मुक्ति :

आत्मा की स्वतंत्रता है। यह मृत्यु के बाद मिलने वाली कोई वस्तु नहीं, बल्कि जीवन जीते हुए भी संभव है। जब मनुष्य अज्ञानजन्य कर्ता-भोक्ता भाव का त्याग कर अपने शाश्वत स्वरूप का अनुभव करता है और परब्रह्म से एकत्व स्थापित करता है, तभी वह मुक्त हो जाता है।



मुक्ति केवल शास्त्रार्थ का विषय नहीं, बल्कि आचरण में प्रकट होने वाली अवस्था है। गृहस्थ भी यदि निष्काम भाव से अपने कर्म भगवान को अर्पित करता है तो जीवन्मुक्त हो जाता है। जैसे कमल जल में रहकर भी उससे अछूता रहता है, वैसे ही भक्त संसार में रहकर भी बंधनों से मुक्त रहता है। दार्शनिक तथ्य यही है कि बाह्य बंधनों का टूटना नहीं, अपितु अंतर्मन का निर्मल होना ही वास्तविक मुक्ति है।


आश्रय :  

इसकी अवधारणा बोध कराती है कि समस्त चराचर जगत की उत्पत्ति और लय के मूल कारण स्वयं परब्रह्म ही हैं। वही सृष्टि के आधार, पोषक और शरणदाता हैं। जीवन में सुख हो या दुख, अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, यदि मनुष्य भगवान का स्मरण करता है, तो प्रत्येक परिस्थिति साधना बन जाती है। पांडवों का जीवन इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। विपत्तियों के बीच उन्होंने श्रीकृष्ण का आश्रय लिया और लोक में आदर्श बने। अंततः जीवन की गति भगवान के चरणकमलों में ही है।



भागवत के इन चार लक्षणों का गहन अध्ययन हमें यह उपदेशित करता है कि जीवन क्षणभंगुर है, किंतु उसे अपने सुकृत्यों और भगवद्भक्ति से अमर बनाया जा सकता है। निरोध हमें अनित्य का बोध कराता है, मुक्ति आत्मा की स्वतंत्रता का अनुभव कराती है और आश्रय हमें परमसत्य से जोड़ता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण का शाश्वत संदेश है कि जो मानव परिवर्तन को स्वीकार करता है, मृत्यु का स्मरण रखता है, मुक्ति का अनुभव करता है और परमेश्वर को अपना आश्रय मानता है, वही इस लोक में आदर्श बनकर सबके लिए समादरणीय होता है।



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