Bihar Election Result 2025: चुनावों के चंद साल पहले ही भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने बिहार पर विशेष ध्यान देना शुरु कर दिया था। बीजेपी आलाकमान जानता था कि 20 सालों की एंटी इंकंबेंसी तो है ही। लेकिन आरजेडी के तेजस्वी यादव जिन मुद्दों पर हमले कर रहे हैं वो वोटरों पर असर डाल सकते हैं। इसलिए पिछले 2 सालों से संगठन पर जोर लगाते हुए बूथ मैनेजमेंट और पंचायत के स्तर तक कार्यकर्ताों को एकजुट करने का काम शुरु हो गया था।
हर स्थान पर प्रभारी लगाए गए थे। हर बूथ पर पांच कार्यकर्ता और मंडल स्तर पर 25 की टोलियां बनायीं गयीं थी। इन टीमों ने बूथ को संगठित किया। अमित शाह ने संगठन को मजबूत करने का जिम्मा अपने सिर ले लिया था। उन्होंने संगठनात्मक बैठके लेनी शुरु कर दी थीं। शाह ने राज्य के प्रभारियो और शीर्ष पदाधिकारियों को कई टास्क दिए। राज्य, जिला, पंचायत और बूथ स्तर के टास्क बता कर उन्हें जमीन पर उतारने को कहा।
अमित शाह का सबसे महत्वपूर्ण टास्क जो कार्यकर्ताओं को मिला वो था कि हर कार्यकर्ता अपने परिवार के साथ कम से कम तीन परिवारों के वोट कराए। साथ ही मतदान के दिन ये काम सुबह 9 बजे तक पूरा कर ले। यही कारण है कि इस बार वोटिंग प्रतिशत सुबह से ही काफी ज्यादा रहा। चुनावों से महीनों पहले हर जिला और बूथ स्तर तक एनडीए के सभी दलों के कार्यकर्ताओं की बैठकें हुईं।
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इसके पहले राज्य के प्रभारी विनोद तावडे और सह प्रभारी सांसद दीपक प्रकाश ने जब इन टीमों को जोश में काम पूरा करते देखा तो उन्हें भरोसा हो गया कि जमीन पर टीम का काम पक्का है। इसलिए जीत में मुश्किल नहीं आएगी। पिछले कुछ चुनावों का अनुभव था कि सहयोगी दलों के कार्यकर्ता एक दूसरे को जमीनी स्तर पर भरोसा नहीं कर रहे थे। सहयोग भी आसानी से नहीं हो रहा था।
लेकिन प्रभारियों की टीम जिन्हें गृह मंत्री अमित शाह से मंत्र मिला था। उन्होने हर जिले और विधानसभा स्तर तक गठबंधन के सभी सहयोगी दलों के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं की बैठकें हुईं। इससे एनडीए में जमीनी स्तर पर समरसता आ गयी। पांचों पार्टी के कार्यकर्ता मिलकर बैठे तो संदेश एक ही दिया गया कि चुनाव बीजेपी अकेले नहीं लड़ रही है। बल्कि एनडीए चुनाव लडेगी और जीतेगी।
हर लोकसभा-विधानसभा में एक प्रभारी और विस्तारक नियुक्त
चुनावों के समय 40 लोकसभा क्षेत्रों में 40 लोकसभा प्रभारी लगाए गए। इनमें मध्य प्रदेश के सांसद और पूर्व अध्यक्ष वीडी शर्मा और सांसद निशिकांत दूबे शामिल थे। सभी बीजेपी और एनडीए शासित राज्यों के मुख्यमंत्री प्रचार में कूद पड़े। जहां जिस जाति के वोट हैं। उसी मुताबित नेताओं के प्रचार कार्यक्रम तय किए गए। 239 विधानसभा क्षेत्रों के लिए 239 प्रभारी काम पर लगाए गए।
आधे दर्जन संगठन मंत्रियों को दूसरे राज्यों से बुलाकर काम पर लगाया गया। देश भर से लगभग 300 महिला कार्यकर्ताओं का बिहार में प्रवास का कार्यक्रम बना। इन महिला कार्यकर्ताओं ने वोटर्स के बीच 20-25 दिनों तक बिहार में प्रवास किया। देश भर से करीब 150 विस्तारक 6 महीेने से विधानसभा क्षेत्रों में काम कर रहे थे। इनके साथ भी स्थानीय विस्तारकों को काम पर लगाया गया था।
एंटी इंकंबेंसी को सत्ता के पक्ष में बदला
चुनावों के 6 महीने पहले तक आलाकमान को अंदाजा था कि एंटी इनकंबेंसी नजर आने लगी है। तेजस्वी ने यात्राएं शुरु कर दीं थी। उन्होंने नीतियो पर नीतीश सरकार पर हमले भी शुरु कर दिए थे। तेजस्वी ने नीतीश कुमार की बीमारी, बिगड़ती कानून व्यवस्था और रोजगार, पलायन जैसे मुद्दों पर सरकार को जम क घेरना शुरु कर दिया था। इसका असर भी होने लगा था। लेकिन राहुल गांधी एसआईआर के मुद्दे पर यात्रा करने उतर पड़े। उनके साथ तेजस्वी यादव को देखकर संदेश यही गया वो राहुल के पीछे हैं।
वो राहुल को बार-बार पीएम पद का दावेदार बताते रहे। लेकिन राहुल गांधी ने एक बार भी उनका सीएम के लिए नाम नही लिया। जब काफी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस ने तेजस्वी यादव का नाम लिया तब तक देर हो चुकी थी। एनडीए ने नेतृत्व के मुद्दे पर अपनी सियासत मजबूत कर ली थी। बीजेपी का मानना है कि यहीं पर लीडरशीप तेजस्वी के हाथ से निकली और उनकी मुहिम की हवा भी निकल गयी। उधर बीजेपी ने कई जिलों में लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल के काले कारनामों की प्रदर्शनियां भी लगायीं। ताकि युवा वोटरों को पता चले की उनके राज्य का क्या हाल किया गया था।
उधर पीएम मोदी की बैठकें औऱ जनसभाएं चुनावों के चंद महीने पहले ही शुरु हो चुकी थीं। पीएम मोदी की आधा दर्जन रैलियां चुनावों से पहले हो चुकी थीं। अमित शाह ने कई संगठन स्तर की बैठकें भी कर लीं थीं। सडक निर्माण निर्माण, नए एयरपोर्ट और एयर कनेक्टिविटी और रेल की जबरदस्त सुविधाओं की बात जमीनी स्तर पर लोगों के पास पहुंचनी शुरु हो गयीं थी। नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य सरकार ने लंबित योजनाओं को जमीन पर तैजी से उतारा। महिलाओं के खाते में पैसे डाले गए। 125 यूनिट मुफ्त बिजली का ऐलान किया गया। इसलिए चुनावों के ऐलान के पहले ही बीजेपी की जमीन तैयार थी।
टिकट बंटवारे और उम्मीदवारों के ऐलान के बाद विवाद हुआ तो अमित शाह ने एक एक से बात कर उन्हें बिठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान भी नाराज नेताओं को शांत करने में लगे रहे। नतीजा ये रहा कि एनडीए में तनाव कम से कम ही रहे। जबकि महागठबंधन अंत तक टिकट बंटवारे की समस्या सुलझाता रहा। अमित शाह की भी जनसभाएं कम ही रहीं। लेकिन वो कई जिलों में गए, वहां प्रवास किया और कार्यकर्ताओं से घुले मिले।
धर्मेंद्र प्रधान के बारे में इतना ही कह सकते हैं कि देर आए दुरुस्त आए। उनके पास वक्त तो कम था लेकिन उनका बिहार का पहले का अनुभव काम आया। उन्होने कोई जनसभा नहीं की और न ही मीडिया में दिखे। पूरा वक्त उन्होने राज्य के नेताओं के साथ बिताया और उन्हें टिप्स देते रहे। दूसरी तरह पूरे दो साल तक राज्य के प्रभारी विनोद तावडे और सह प्रभारी दीपक प्रकाश तो इतने लो प्रोफाइल होकर जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत करने का काम करते रहे और सफलता का श्रेय लेने भी सामने नहीं आए।
यही नयी बीजेपी जो हर चुनाव को जीतने के लिए लड़ती है। पार्टी कार्यकर्ताओं को पूरी ताकत के साथ इस मुहिम में झोकती हैं। पीएम मोदी के कार्यकाल में बीजेपी का पूरा तंत्र एक \“जीत का तंत्र\“ बनता जा रहा है। |