पढ़ें 120 बहादुर का सबसे सटीक रिव्यू
फिल्म रिव्यू : 120 बहादुर
प्रमुख कलाकार : फरहान अख्तर, राशि खन्ना, अंकित सिवाच, एजाज खान, स्पर्श वालिया
निर्देशक : रजनीश रेजी घई
अवधि : दो घंटा 17 मिनट
स्टार : ढाई
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई. देशभक्ति पर आधारित कहानी हमेशा से ही फिल्ममेकर्स की पसंद रही हैं। खास तौर पर युद्ध आधारित फिल्मों में सैनिकों की जिंदगी, संघर्ष और पारिवारिक पहलू को बारीकी से उकेरा जाता है। देश के प्रति उनका समर्पण और प्रतिबद्धता पर्दे पर देखते हुए कई बार गला रुंध जाता है या आंखें भर आती है। अपने सैनिकों का बलिदान देखकर सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। फरहान अख्तर अभिनीत फिल्म \“120 बहादुर\“ भारत और चीन के 1962 के युद्ध पर आधारित है, जिसमें 13वीं कुमाऊं रेजिमेंट ने रेजांग ला पर बर्फीले मौसम में तीन हजार से अधिक चीनी सैनिकों का सामना किया था। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
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माइनस 24 डिग्री तापमान के बावजूद सैनिकों के हौसले डिगे नहीं और सरहद की रक्षा करने के लिए प्राणों की आहुति दे दी। मात्र 120 सैनिकों द्वारा मोर्चा संभालने के बावजूद चीन की सेना को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा था। कहानी के केंद्र में मेजर शैतान सिंह भाटी हैं, जिनके नेतृत्व में यह युद्ध लड़ा गया था। फरहान अख्तर ने इसमें मेजर शैतान सिंह भाटी का किरदार निभाया है, जिन्हें मरणोपरांत अपने अदम्य साहस के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। फिल्म को बनाने के पीछे निर्माताओं की मंशा अच्छी है लेकिन भावनाओं को उबारने या तनाव को गढ़ पाने में निर्देशक रजनीश घई सफल नहीं हो पाए हैं। उन पर जे पी दत्ता निर्देशित फिल्म बार्डर का प्रभाव साफ नजर आता है, जो 1971 युद्ध पर आधारित थी।
कहानी का आरंभ 18 नवंबर 1962 से होता है। रेडियो आपरेटर रामचंद्र यादव (स्पर्श वालिया) घायल हैं और सदमे में हैं। वह पिछले दो दिनों में घटित घटनाक्रम का वृत्तांत सुनाते हैं। उनकी तैनाती दिल्ली से चुशुल में की जाती है। युद्ध के हालातों के बीच चुशुल को भारत अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहता। अहीर समाज से आने वाली 13वीं कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली कंपनी के कमांडर शैतान सिंह रेजांग ला को सुरक्षित करने की जिम्मेदारी संभालते हैं। शुरुआत सैनिकों की जिंदगी और आपसी नोकझोंक दिखाने से होती है। चीनी सैनिकों की दहशत गांव में दिखने लगती है। वह पूरे गांव को निशाना बनाते हैं। वहीं शैतान सिंह चीनी सेना के मंसूबों को भांप जाते हैं कि खराब मौसम का फायदा उठाकर दुश्मन भारत पर वार करेगा। वह अपनी दूरगामी सोच और अनुभव से चीनी सेना से निपटने की रणनीति बनाते हैं। सीमित संसाधन, प्रतिकूल परिस्थितियों और हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बावजूद सैनिक कंधे से कंधे मिलाकर उनके साथ लड़ाई लड़ते हैं।
साल 1964 में आई धर्मेंद्र और बलराज साहनी अभिनीत ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म हकीकत भी 1962 में भारत और चीन के बीच लड़े गए युद्ध पर आधारित थी। उसमें सैनिकों की जिंदगी के हर पहलू को बारीकी से दिखाया गया था। उसका गाना अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों आज भी लोगों की जुबान पर है। \“धाकड़\“ निर्देशित कर चुके रजनीश घई की फिल्म में वीएफएक्स काफी है, लेकिन कहानी के चित्रण में कमजोर साबित होते हैं। राजीव मेनन की लिखी कहानी और स्क्रीनप्ले में हाड़ कंपा देने वाली ठंड का जिक्र होता है, लेकिन एहसास नहीं। भावनाओं का एहसास जग पाने में वह विफल रहे हैं। शुरुआत में सैनिकों के बीच आपसी नोकझोंक के दृश्य हो या अपने परिवार की कमी अखरना, उससे जुड़ाव महसूस नहीं होता। ऐसे दृश्य युद्ध आधारित फिल्मों में पहले भी देखे गए हैं। युद्ध से पहले गांववालों को निशाना बनाने के दृश्य झकझोरते नहीं हैं। सुमित अरोड़ा के लिखे संवाद भी प्रभाव नहीं छोड़ते हैं। आखिर में भारी भरकम चीनी सेना के सामने मुठ्ठी भर भारतीय सैनिकों के कुछ दृश्य रोमांच लाते हैं। क्लाइमैक्स सीन में शैतान सिंह भाटी के बलिदान को ज्यादा बेहतर तरीके से दिखाने की गुंजाइश थी।
करीब चार साल बाद अभिनय में वापसी करने वाले फरहान अख्तर का पात्र राजस्थान से आता है, लेकिन उन्होंने उच्चारण पर कोई मेहनत नहीं की है। लक्ष्य जैसी देशभक्ति आधारित फिल्म का निर्देशन कर चुके फरहान भावनात्मक दृश्यों में कमजोर साबित होते हैं। सैनिकों में जोश और जज्बा जगाने के दृश्यों में वह प्रभावी नहीं लगे हैं। उनकी पत्नी की भूमिका में राशि खन्ना खूबसूरत लगी हैं। वह अपने पात्र के साथ न्याय करती हैं, लेकिन फरहान और उनकी कैमिस्ट्री जमती नहीं है। रेडियो ऑपरेटर की भूमिका में स्पर्श वालिया का अभिनय उल्लेखनीय है। वहीं सूरज राम की भूमिका में विवान भतेना का अभिनय सराहनीय है। सहयोगी भूमिका में आए एजाज खान,अंकित सिवाच, देवेंद्र अहिरवार, मार्कस मोक कमजोर स्क्रीनप्ले को अपने अभिनय से संभालने की कोशिश करते हैं।
जावेद अख्तर लिखित गीत और संगीतकार अमजद नदीम आमिर द्वारा संगीतबद्ध गाना फिल्म देखने के बाद याद नहीं रहता। बैकग्रांउड स्कोर भी फीका सा लगता है। तेत्सुओ नागाता का कैमरा लद्दाख की खूबसूरती को बेहतरीन तरीके से दर्शाता है।
भारतीय सैनिकों के साहस को दर्शाने वाली 120 बहादुर का स्क्रीनप्ले और संवाद अगर दमदार होते तो बेहतरीन फिल्म हो सकती थी। हालांकि निर्माताओं की इस बात को लेकर तारीफ बनती है कि वह सैनिकों की इस साहसिक कहानी को सामने लाए जिस पर हर भारतीय को गर्व होगा।
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