आक्रामक विदेशी प्रजातियों का बढ़ता संकट (Image Source: AI-Generated)
डॉ. दीपक कोहली, नई दिल्ली। आक्रामक विदेशी प्रजातियां ऐसे पौधे या जीव होते हैं, जिन्हें मानव गतिविधियों द्वारा उनके प्राकृतिक भौगोलिक क्षेत्र से जानबूझकर या अनजाने में किसी नए क्षेत्र में लाया जाता है। ये प्रजातियां नए वातावरण में खुद को तेजी से स्थापित कर लेती हैं और स्थानीय प्रजातियों के लिए बड़ा खतरा बन जाती हैं। ये आक्रामक प्रजातियां स्थानीय पौधों के साथ भोजन, पानी और आवास जैसे संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं, जिससे देसी प्रजातियां इनके सामने टिक नहीं पातीं। इससे स्थानीय वनस्पतियों की कई प्रजातियां विलुप्त भी हो चुकी हैं। जो जानवर इन देसी पौधों पर भोजन या आवास के लिए निर्भर करते हैं, उन पर भी इसका सीधा नकारात्मक असर पड़ता है। भले ही ये पौधे पहली नजर में हरे-भरे दिखें, लेकिन इनकी आक्रामकता मिट्टी, जल, जंगल, खेती और मानव स्वास्थ्य सभी को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचाती है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
टूट जाता है प्रकृति का चक्र
ये प्रजातियां मिट्टी की संरचना, पोषक तत्वों के चक्रण और जल विज्ञान को बदल देती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ आक्रामक पौधों को बड़ी मात्रा में पानी चाहिए, जिससे भूजल स्तर गिर जाता है और अन्य स्थानीय पौधों के लिए पानी की कमी हो जाती है। आक्रामक पौधे स्थानीय पौधों को प्रकाश, पानी और पोषण से वंचित कर देते हैं। इससे स्थानीय पौधों की प्रजातियां घटती जाती हैं, जिससे उनसे जुड़े कीट-पतंगे, पक्षी और छोटे जीव भी संकट में पड़ जाते हैं। जब ये पौधे स्थानीय पौधों की जगह लेते हैं, तो वन्यजीवों के लिए भोजन के स्रोत समाप्त हो जाते हैं। इससे शाकाहारी जानवरों को भोजन नहीं मिलता, जिससे पूरे खाद्य चक्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कई आक्रामक प्रजातियां मिट्टी की रासायनिक संरचना बदल देती हैं। इन पौधों के पराग भी हानिकारक हो सकते हैं।
हो रहे हैं कई प्रयास
आक्रामक पौधों की प्रजातियों को नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि वे तेजी से फैलती हैं और विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहती हैं। पौधों को उखाड़ना या काटकर नष्ट करना छोटे क्षेत्रों में श्रमसाध्य होने के बावजूद कारगर है। शाकनाशियों का उपयोग केवल आपात स्थितियों में और नियंत्रित मात्रा में ही किया जाना चाहिए, ताकि पर्यावरण को नुकसान न हो। विज्ञानियों ने भृंग (जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा) और कुछ कवकों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है जो इन प्रजातियों पर हमला करते हैं। गांवों और कस्बों के स्तर पर लोगों को इन पौधों की पहचान और नष्ट करने की शिक्षा देना सबसे स्थायी उपाय माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता पर कन्वेंशन और राष्ट्रीय स्तर पर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 तथा राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण इस समस्या से निपटने के लिए कानूनी सहायता प्रदान करते हैं।
हर वर्ग की जिम्मेदारी
आक्रामक विदेशी पादप प्रजातियां केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं हैं, बल्कि यह कृषि, पशुपालन, मानव स्वास्थ्य और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सभी को प्रभावित करने वाला संकट है। यदि समय रहते इन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो आने वाले वर्षों में हमारी जैव विविधता को अपूरणीय क्षति पहुंच सकती है। आज वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने, स्थानीय समुदायों को सक्रिय भागीदारी के लिए तैयार करने और नीति-निर्माताओं को सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है। स्वस्थ पर्यावरण और जैव विविधता की सुरक्षा केवल सरकारी प्रयासों से नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग की सहभागिता से ही संभव है।
भारत में पाई जाने वाली प्रमुख आक्रामक विदेशी प्रजातियां
लैंटाना कैमारा (पंचफूली/गंधैल)
सजावटी झाड़ी के रूप में मूल रूप से दक्षिण अमेरिका से लाया गया यह पौधा आज मध्य भारत, पश्चिमी घाट और हिमालयी क्षेत्रों में फैल चुका है। यह स्थानीय झाड़ियों और घासों को पूरी तरह दबा देता है। इसकी सूखी टहनियां जंगल की आग को और भयावह बना देती हैं। इससे बाघों के आवासों और चरागाहों में देसी वनस्पति का भी नुकसान हो रहा है।
पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस (गाजर घास)
1950 के बाद गेहूं की खेप के साथ भारत पहुंचा यह अत्यंत आक्रामक खरपतवार अब देशभर में फैल चुका है। कांग्रेस घास या गाजर घास के नाम से प्रचलित यह प्रजाति फसलों और चरागाहों को नुकसान पहुंचाती है, फसलों की पैदावार घटाती है और खेतों को बंजर करती है। इसके पराग और सूक्ष्म रेशे त्वचारोग, एलर्जी, श्वसन रोग और अस्थमा उत्पन्न करते हैं। जानवरों में भी एलर्जी का कारण बनता है।
आइकोर्निया क्रैसिपेस (जलकुंभी)
बोलचाल में इसे जलकुंभी कहते हैं। जल निकायों में तेजी से फैलने वाली यह प्रजाति पानी की सतह को पूरी तरह से ढककर सूर्य के प्रकाश को कम करने के साथ ही पानी में आक्सीजन का स्तर कम कर देती है। इससे जलीय जीवन को खतरा होता है।
प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती बबूल)
देसी भाषा में विलायती बबूल के नाम से प्रचलित प्रोसोपिस ने पर्यावरण, भूजल स्तर, जैव विविधता और स्थानीय कृषि अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया है। शुष्क और बंजर जमीन को हरा-भरा बनाने के लिए लाई गई इस प्रजाति ने स्थानीय पौधों को नष्ट कर दिया। यह अत्यधिक भूजल का दोहन करता है, जिससे भूजल स्तर गिरता है तथा इसकी जड़ें मिट्टी को कठोर और अम्लीय बना देती हैं।
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