बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार ने पार्टी की अंदरूनी कलह और कमजोर संगठन को उजागर किया।
सुनील राज, पटना। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी कलह, कमज़ोर संगठन और नेतृत्व की असंगति पार्टी को लगातार नीचे धकेल रही है। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे ने चुनावी मैदान में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन यह मेहनत मतदाताओं तक कोई ठोस राजनीतिक संदेश नहीं पहुँचा पाई। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस एक बार फिर बिहार की जनता के भरोसे पर खरी नहीं उतर पाई और उसकी हार का सिलसिला और गहरा गया। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
महागठबंधन में बढ़ती दरार
चुनाव से पहले ही बिहार कांग्रेस अध्यक्ष और प्रभारी कृष्णा अल्लावरु की कार्यशैली को लेकर महागठबंधन में असंतोष बढ़ रहा था। टिकट वितरण, सीटों के चयन और स्थानीय गतिशीलता को समझने में उनकी कथित अपर्याप्तता ने राजद-कांग्रेस के रिश्तों में तनाव पैदा कर दिया। राजद ने बार-बार संकेत दिया कि कांग्रेस अपने हिस्से से ज़्यादा सीटों पर दावा कर रही है, जबकि उसके पास न तो कोई संगठन है और न ही ज़मीनी स्तर पर कोई प्रभावी नेटवर्क। यही वजह है कि कांग्रेस महागठबंधन में एक कमज़ोर कड़ी बनकर उभरी।
कांग्रेस नेतृत्व का ज़मीनी जुड़ाव से कटाव
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने बिहार में दर्जनों रैलियाँ कीं, लेकिन ये रैलियाँ स्थानीय मुद्दों की बजाय वोट चोरी जैसे बड़े मुद्दों पर केंद्रित रहीं। बिहार की राजनीति जातीय संरचना, क्षेत्रीय असंतोष और स्थानीय नेतृत्व की पकड़ पर टिकी है। कांग्रेस नेतृत्व एक बार फिर इन ज़मीनी हक़ीक़तों को गहराई से समझने में नाकाम रहा। कांग्रेस नेताओं का एक बड़ा वर्ग मानता है कि शीर्ष नेतृत्व ज़मीनी हक़ीक़तों से अनभिज्ञ है। वही रणनीतियाँ बार-बार दोहराई जाती हैं। यही कटाव कांग्रेस की सबसे बड़ी कमज़ोरी बन गया है।
हार और घटती विश्वसनीयता का रिकॉर्ड
बिहार में कांग्रेस की हार कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार यह एक नया रिकॉर्ड था। सीटों का नुकसान, गिरता वोट प्रतिशत और महागठबंधन में विश्वास का संकट, तीनों ने पार्टी को बेहद कमज़ोर स्थिति में ला दिया है। बिहार के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस संगठन वर्षों से निष्क्रिय है। पंचायत स्तर से लेकर ज़िला स्तर तक, कोई मज़बूत टीम नहीं है जो चुनाव के दौरान मतदान केंद्र पर प्रभावी ढंग से काम कर सके। यहाँ तक कि राज्य कार्यकारिणी का गठन भी एक दशक से नहीं हुआ है। कांग्रेस की समस्या यह है कि उसके पास न तो नए चेहरे तैयार हैं और न ही जनता को अपने पुराने नेताओं पर भरोसा है।
महागठबंधन के लिए बोझ बनती कांग्रेस
राजद के लिए, कांग्रेस अब सहयोगी से ज़्यादा बोझ बनती दिख रही है। सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस की माँग हमेशा उसकी वास्तविक क्षमता से ज़्यादा रही है और उसकी जीत की दर लगातार गिरती रही है। चाहे 2015 का चुनाव हो, 2020 का हो या 2025 का, ये इसके प्रमुख उदाहरण हैं। वोट ट्रांसफर भी असंतुलित दिख रहा है। राजद के वोट कांग्रेस को मिले, लेकिन कांग्रेस के वोट राजद या अन्य सहयोगियों तक नहीं पहुँचे। महागठबंधन के अन्य दलों का मानना है कि कांग्रेस चुनाव जीतने से ज़्यादा टिकट बंटवारे को लेकर चर्चा का विषय बनती है और बाद में चुनावों में गंभीरता नहीं दिखाती।
बिहार को ठीक से समझने की चुनौती को न समझना
बिहार की चुनावी राजनीति उन राज्यों में से एक है जहाँ सामाजिक समीकरण सबसे जटिल हैं। कांग्रेस पार्टी लगातार इस जटिलता को समझने में विफल रही है। राजद, भाजपा और जदयू जैसी कैडर-आधारित पार्टियों की तुलना में कांग्रेस पार्टी का ढाँचा बेहद कमज़ोर है। नेतृत्व स्थानीय नहीं, बल्कि बाहर से नियुक्त है, जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं पैदा होता।
इससे यह स्पष्ट होता है कि बिहार में कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए सिर्फ़ शीर्ष नेताओं की रैलियां ही काफ़ी नहीं हैं। पार्टी को अपने संगठन का पुनर्निर्माण नए सिरे से करना होगा। फ़िलहाल, बिहार की जनता ने इसे फिर से नकार दिया है, और पार्टी उस मोड़ पर है जहाँ अगर बदलाव नहीं किए गए, तो इसकी हार का सिलसिला और बढ़ सकता है। |