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पंजाब हरियाणा HC का सख्त आदेश, आपराधिक मुकदमे में बरी अभ्यर्थी को नौकरी से नहीं किया जा सकता वंचित

LHC0088 2025-10-4 22:06:40 views 794

  पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने दिए सख्त आदेश





राज्य ब्यूरो, चंडीगढ़। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने पुलिस भर्ती से जुड़े एक अहम आदेश में एक युवक की नियुक्ति रद करने के प्रशासनिक निर्णय को खारिज करते हुए याचिका स्वीकार कर ली। जस्टिस जगमोहन बंसल ने सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि आपराधिक मुकदमे में बरी हुए अभ्यर्थी को नियमों के बहाने नौकरी से वंचित नहीं किया जा सकता। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें





याचिका के अनुसार सचिन जून ने 2015 के तहत कॉन्स्टेबल के लिए आवेदन किया था। चयन प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरी हुई और 19 अगस्त 2020 को डीजीपी ने उन्हें 5वीं बटालियन, एचएपी, मद्हुबन में कॉन्स्टेबुलरी नंबर आबंटित करने की सिफारिश की।



मेडिकल और पुलिस सत्यापन के दौरान यह पाया गया कि 04 जुलाई 2009 को बहादुरगढ़ थाना, झज्जर में उनके खिलाफ धारा 380, 420 व 454 के तहत एफआईआर संख्या 255 दर्ज थी, पर ट्रायल में वे 11 सितंबर 2012 को बरी हो चुके थे। इसके बावजूद 09 अप्रैल 2021 को विभाग ने यह आदेश जारी कर दिया कि उक्त धाराएं “मोरल टरपिट्यूड“ की श्रेणी में आती हैं और नियम 12.18(3)(b) के आधार पर उनकी नियुक्ति रद की जाए।



सचिन की ओर से दलील यह रही कि उन्होंने आवेदन और सत्यापन-फॉर्म में पूरा सच दर्ज किया था तथा बरी होने के कारण उनका मामला उप-धारा 12.18(3)(सी) के अंतर्गत आता है। अदालत ने 25 मार्च 2025 के “राकेश कुमार बनाम राज्य हरियाणा“ के फैसले का अनुसरण करते हुए कहा कि नियम की उप-धारा उन स्थितियों पर लागू होती है जहां आरोप सिद्ध न हुए हों और चार्जशीट चल रही हो, जबकि उप-धारा (सी) उन मामलों के लिए है जहां प्राथमिकी वापस की गई हो, स्थगित हुई हो या अभियुक्त बरी किया गया हो।







हाईकोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता ने किसी प्रकार का छिपाव नहीं किया और मामले का निपटारा हो चुका था। इसलिए रद किया गया नियुक्ति पत्र निरस्त कर दिया गया। कोर्ट ने आदेश दिया कि सचिन को चार सप्ताह के भीतर ज्वाइन करने की अनुमति दी जाए, पर उन्होंने बैक वेज या अन्य नोटनल लाभ का दावा नहीं किया। उपलब्ध रिकॉर्ड में सचिन के पक्ष में कोई मिलीभगत या अनुचित लाभ लेने का प्रमाण नहीं था।



अदालत ने प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश दिया है कि नियमों को यांत्रिक रूप से लागू न करें तथा “मोरल टरपिट्यूड“ की श्रेणी का दुरुपयोग न हो। साथ ही न्यायालय ने यह भी गौर किया कि याचिकाकर्ता घटना के समय लगभग 18 वर्ष का था, जो निर्णय के मानवीय आयाम को और बढ़ाता है। यह रवैया युवा आरोपियों के पुनरुद्धार और समानता के सिद्धांत की पुष्टि करता है। विभागीय स्तर पर सुधरात्मक कदम जैसे सत्यापन प्रोटोकॉल का आधुनिकीकरण और अधिकारिक आदेशों में स्पष्टता और पारदर्शिता आवश्यक होगी।
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