3 दिसंबर: वो रात जो गई नहीं… भोपाल की हवा में आज भी वो जहर जिंदा है।
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। दिसंबर, 1984... 2 और 3 दिसंबर के दरम्यान रात में भोपाल की हवा में ऑक्सीजन नहीं, मौत बही रही थी। यही कारण है कि 3 दिसंबर की रात कैलेंडर में सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि भारत की सबसे बड़ी प्रशासनिक नाकामी और कॉरपोरेट लापरवाही का ऐसा धब्बा है, जो 41 साल बाद भी मिटा नहीं है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
उस आधी रात को रिसी यूनियन कार्बाइड की मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस ने हजारों जिंदगियां निगल ली और लाखों तबाह कर दीं। भोपाल गैस त्रासदी के 41 साल पूरे हो गए।
3 दिसंबर को हर साल मेमोरियल पर मोमबत्तियां जलती हैं। नेता भाषण देते हैं। पर जेपी नगर की गलियों में अब भी पसरा है दर्द, थकान और वही कड़वा सवाल- आखिर मौत उस रात आई थी, लेकिन हमें जीते जी कौन मार रहा है?
भोपाल गैस त्रासदी की 41वीं बरसी इस बात का स्मरण है कि यह सिर्फ एक बीती घटना नहीं, एक जारी अपराध है। और जब तक इलाज, न्याय और जिम्मेदारी तय नहीं होती- भोपाल की हवा में वह रात जिंदा रहेगी।
क्या त्रासदी इतिहास बन गई या..?
आज का असली सवाल यह है- क्या त्रासदी सिर्फ इतिहास बन चुकी है या भोपाल आज भी उसी गैस को हर सांस में ढो रहा है? त्रासदी की कहानी सिर्फ 1984 की नहीं है… यह 2025 का दर्द भी है। जेपी नगर की सांसों में आज भी जहरीले कण हैं। कारखाने से चंद कदम दूरी पर बसे जेपी नगर की गलियों में चलते हुए साफ महसूस होता है कि यहां लोग सिर्फ उम्र के कारण बूढ़े नहीं हुए, गैस ने समय से पहले बुढ़ापा ला दिया है।
70 वर्षीय नफीसा बी चार कदम चलती हैं तो सांस टूटने लगती है। पति और तीन बच्चों को गैस ने छीन लिया। गैस राहत के नाम पर 1200 रुपये मिलते हैं। बाकी जिंदगी एक छोटी-सी दुकान चलाकर बस गुजर रही है।
इसी गली में रहने वाले 66 वर्षीय अब्दुल हफीज जरा-सी बात करते ही खांसने लगते हैं। पुताई का काम करते थे, आज हाथ-पैर हिलाना मुश्किल है। उनकी आंखों में आज भी वह रात जीवित है, कहते हैं- \“हमीदिया अस्पताल में डॉक्टरों ने मेरी 14 साल की भांजी को मृत बता दिया था। लाशों के ढेर से उसे उठाया, तभी उसकी उंगलियां हिलीं... वह जिंदा थी। मुझे आज भी उसकी उंगलियों का वो कांपना याद है।\“
60 वर्षीय शाहिदा बी की जिंदगी भी किसी युद्ध के बाद के मलबे जैसी है। उनका साढ़े आठ साल का बेटा शाहिद अम्मी..अम्मी कहते हुए गोद में दम तोड़ गया था। गैस के असर से पति को कैंसर हुआ और वो भी चल बसे। फरीदा खुद आज ढेर सारी बीमारियों से जूझ रही हैं। इसलिए अस्पताल में महीनों बाद मिलने वाली ‘तारीख’ उनकी सबसे बड़ी मजबूरी है।
इलाज के नाम पर \“इंतजार की डोज\“
भोपाल मेमोरियल अस्पताल गैस पीड़ितों के नाम पर बना है, लेकिन पीड़ितों का आरोप है- \“यहां दवा नहीं, सिर्फ \“इंतजार की डोज दी\“ जाती है। ज्यादातर लोग आज भी प्राइवेट अस्पताल में महंगा इलाज कराने को मजबूर हैं, क्योंकि सरकारी अस्पताल में- दवाएं खत्म, डॉक्टर कम, जांच के लिए लंबी कतारें और हर बीमारी का एक ही जवाब- \“यह गैस का असर है, यह तो रहेगा ही ना, अब जिंदगी ऐसी ही चलेगी।\“
...तो गैस त्रासदी आज भी खत्म नहीं हुई?
इस जहरीली का दंश अब तीसरी पीढ़ी के रक्त व जीन तक पहुंच चुका है। इसका जहर बच्चों में शारीरिक विकृतियां, कैंसर, कमजोर दिमाग और विकास में देरी का कारण बन रहा है। जहां सामान्य बच्चे नौ से 12 माह की उम्र में चलने लगते हैं, वहीं गैस प्रभावित परिवारों के बच्चे डेढ़ साल बाद ही चल पाते हैं।
इतना ही नहीं, पीड़ित परिवारों में गर्भपात की दर ऊंची और शिशु मृत्यु दर भी सामान्य से कई गुना ज्यादा दर्ज की गई है। नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन एनवायर्नमेंटल हेल्थ की रिपोर्ट में यह दावा किया गया है।
वैज्ञानिक अध्ययनों में स्पष्ट प्रमाण मिले हैं कि एमआईसी गैस जीनो टॉक्सिक है, यानी यह सीधे डीएनए और क्रोमोसोम (गुणसूत्र) पर हमला करती है। वर्ष 1986 में हुए पहले अध्ययन में ही गैस पीड़ितों के क्रोमोसोम में गंभीर क्षति मिली थी।
वैज्ञानिकों ने का कहना है - MIC के संपर्क में आए लोग पीढ़ियों तक असर झेलते हैं और भोपाल में तीसरी पीढ़ी पर भी इसका असर साफ दिख रहा है। लोग बीमारियों से कराह रहे हैं।
अब बात करते हैं भोपाल के लोगों के जेहन में तैरते सवालों की...
सवाल नंबर-1: चेतावनी के बावजूद क्यों नहीं लिया एक्शन?
भोपाल में गैस रिसाव की घटना से ढाई साल पहले पत्रकार राजकुमार केसवानी ने बार-बार लिखा था कि यूनियन कार्बाइड प्लांट ‘ज्वालामुखी’ है।
हेडलाइनें सिर्फ खबरें नहीं थीं, SOS थीं
- \“बचाइए हुजूर इस शहर को बचाइए\“
- \“ना समझोगे तो मिट जाओगे\“
- \“आपदा के कगार पर भोपाल\“
लेकिन सरकार ने चेतावनी को अनसुना किया। वजह? यूनियन कार्बाइड उस दौर में मध्यप्रदेश की ‘सबसे बड़ी विदेशी निवेशकारी इकाई’ थी। और जब IAS अधिकारी एमएन बुच ने प्लांट हटाने की अनुशंसा की तो उनका ट्रांसफर तक कर दिया गया।
सवाल नंबर-2: मुख्यमंत्री जनता को छोड़कर क्यों भागे थे?
3 दिसंबर की तड़के सुबह जब मौत शहर में तांडव कर रही थी। घरों से लेकर सड़कों तक जहां-तहां लाशें पड़ी थीं। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपने परिवार को लेकर सरकारी विमान से इलाहाबाद चले गए। बाद में जब हंगामा हुआ तो उन्होंने सफाई दी- \“मैं प्रार्थना करने गया था।\“ लेकिन सवाल यह है कि क्या उस रात प्रार्थना भोपाल में नहीं हो सकती थी?
सवाल नंबर-3: एंडरसन को VIP ट्रीटमेंट किसके कहने पर मिला?
मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को 7 दिसंबर को गिरफ्तार जरूर किया गया, लेकिन एसपी और डीएम खुद उसे रिसीव करने गए। एंबेसडर कार में बैठाकर गेस्ट हाउस ले गए। उसे वहां आराम कराया गया। अगले ही दिन राज्य सरकार के विमान में बैठाकर दिल्ली भेजा दिया गया और वहां से वह अमेरिका फरार हो गया।
41वीं बरसी पर भी लोग पूछ रहे हैं कि हमारे कातिल को कौन बचा रहा था? किसके दबाव में उसे भागने दिया? कातिल के मसीहा का नाम क्यों उजागर नहीं किया गया? आखिर क्यों न किसी को जिम्मेदार ठहराया और न सजा दी गई?
एक आरोपी, जिसने दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी की नींव रखी, उसके लिए सरकारी मशीनरी किसके कहने पर VIP ट्रीटमेंट दे रही थी? हालांकि, अर्जुन सिंह ने स्वीकार किया कि दिल्ली से फोन आया था, लेकिन किसका यह खुलासा नहीं किया था।
सवाल नंबर-4: इतने बड़े अपराध में सिर्फ 14 दिन की जेल?
CBI ने 3 साल जांच की। अदालत ने 2010 में फैसला सुनाया- यूनियन कार्बाइड के 7 भारतीय अधिकारियों को 2 साल की सजा। जुर्माना भरा और 14 दिन बाद सभी जमानत पर बाहर। जबकि हजारों लोग मरे। लाखों बीमार। तीन पीढ़ियां प्रभावित और 41 साल बाद भी इलाज पूरा नहीं। आखिर कानून का यह पलड़ा किस तरफ झुका था?
सवाल नंबर-5: मुआवजा.. यह थी दर्द की कीमत?
1989 में भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड ने समझौता किया- 615 करोड़ रुपये। यानी एक मौत के बदले औसतन 1 लाख रुपये। गंभीर रूप से बीमारों को 50,000 रुपये और घायलों को 25,000 रुपये। क्या किसी बच्चे की आंखें, किसी मां की सांसें, किसी जवान की जिंदगी की कीमत सिर्फ कुछ हजार रुपये थी?
क्या कहते हैं भोपालवासी:
\“हम उस रात में मर गए थे, बाद में सिर्फ कैलेंडर बदला। हमारे शरीर ठीक से काम नहीं करते। हमारी आंखें जलती हैं। हमारे फेफड़े एक कमरे में चलने भर से थक जाते हैं- हमारे लिए 3 दिसंबर 1984 सिर्फ स्मृति नहीं, दैनिक यथार्थ है। सरकारें बदलीं, नेता बदले और बयान भी बदले, पर भोपाल में गैस पीड़ितों के दर्द के लिए आज तक कोई असरकारी मरहम नहीं बना।
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