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लोक कथाओं का चलता-फिरता संग्रहालय है राजस्थान की फड़ चित्रकला

deltin33 2025-10-11 01:01:44 views 633

  

बेहद खास है राजस्थान की फड़ चित्रकला (Image Source: https://mapacademy.io)






लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र की फड़ पेंटिंग, राज्य के लोक नायकों (भोमिया) की कहानियों का वर्णन करती है। यह स्क्राल पेंटिंग का एक रूप है। इन लोक नायकों में मेघवाल और रैगर जातियों के रामदेवजी, गुर्जर समुदाय के देवनारायण या देवजी और रबारी समाज के पाबूजी शामिल हैं। ऐतिहासिक रूप से इन पेंटिंग या स्क्राल का उपयोग घुमंतू रबारी पुजारियों, जिन्हें भोपा या भोपी नाम से जाना जाता है, द्वारा किस्से-कहानियों की प्रस्तुति के दौरान किया जाता था। जहां स्थानीय कलाकारों को कपड़े पर चित्र बनाने का काम सौंपा जाता था। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
गाथाओं जितनी लंबी चित्रकारी

फड़ चित्रकारी की उत्पत्ति 14वीं शताब्दी में शाहपुरा में हुई, जिसे मुख्यत: ‘छिपा’ जाति के सदस्यों द्वारा बनाया जाता था। यही वह काल था, जब इन स्क्रालों द्वारा प्रलेखित स्थानीय लोक कथाएं या वीरगाथाएं पहली बार सामने आईं। इन चित्रकलाओं में उल्लेखनीय राजपूत राजाओं की कहानियां भी चित्रित की गईं। हालांकि यह अपेक्षाकृत दुर्लभ था। फड़ चित्रकारी की लंबाई पांच से 35 फुट तक होती थी। मोटे सूती कपड़े या खादी से बने कपड़े को रातभर पानी में भिगोया जाता, फिर सुखाया जाता और प्राइमर लगाया जाता। इसके बाद इसे आमतौर पर पुरुष कारीगरों द्वारा पत्थर से पालिश किया जाता। यह प्राइमर पानी में उबाले गए आटे और गोंद का मिश्रण होता तो वहीं चित्रकारी में उपयोग में लाए जाने वाले रंग पारंपरिक रूप से महिलाओं द्वारा तैयार किए जाते थे। यह रंग प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले खनिजों से प्राप्त होते थे। कारीगर पीले रंग से हल्की रेखाएं खींचते, फिर रचना तैयार होने पर उसमें और रंग भरते। रंग को स्थानीय खेरिया गोंद के माध्यम से कपड़े पर लगाया जाता। फड़ चित्रकारी की दीर्घायु और जीवंतता के मुख्य कारक उपयोग में लाया गया गोंद और ऊपरी सतह की पालिश हैं। आज भी यह तरीका प्रासंगिक है।
केंद्र में रहते देवता

इस शैली में समतल परिप्रेक्ष्य और चटख रंगों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक चित्र काले और सफेद रंग के किनारों से घिरा होता है, जो जटिल पुष्प पैटर्न से बने होते हैं, जबकि कपड़े के किनारे हमेशा लाल होते हैं। मानव आकृतियों के शरीर का स्वरूप सामने की ओर एवं मुख का केवल पार्श्वचित्र दर्शाया जाता है। ये आकृतियां नारंगी रंग में चित्रित हैं, आभूषण और वस्त्र लाल, पीले, नीले और हरे रंग में रंगे जाते हैं। इनमें भोमिया को रचना के केंद्र में रखा जाता है। उसके चारों ओर वीरगाथा आंशिक या पूर्ण रूप से चित्रित की जाती है। हालांकि दृश्यों का रैखिक तरीके से चित्रण जरूरी नहीं है। आमतौर पर क्षैतिज रूप से ही इन्हें व्यवस्थित किया जाता है व लताओं से बने पतली किनारों वाले पैनलों में विभाजित किया जाता है। केंद्रीय आकृति की आंख में एक पुतली बनाकर चित्र का समापन ऐसा भाव देकर किया जाता है, जो प्रतीकात्मक रूप से इसे जीवंत बनाता है।
पवित्र है हर स्क्राल

भोपा एवं भोपी पारंपरिक रूप से फड़ चित्रकला को रात में प्रदर्शित करते हैं। भोपी चित्रकला के विभिन्न दृश्यों को उजागर करने के लिए दीपक का उपयोग करती है और रावणहत्था नामक दो-तार वाला वाद्य यंत्र बजाती है, जबकि भोपा कहानी सुनाता है। इस प्रदर्शन को फड़ बांचना (‘फड़ पढ़ना’) भी कहा जाता है, जो ऐतिहासिक रूप से धार्मिक सेवा के रूप में शुरू किया गया था। यह समारोह पारंपरिक रूप से प्रदर्शन क्षेत्र में शुद्धिकरण अनुष्ठानों की शृंखला के साथ-साथ फड़ चित्रकला के केंद्र में स्थित भोमिया की आरती के साथ शुरू होता था।
बदल रही है कला

आज केवल कुछ ही कारीगर पेशेवर रूप से फड़ चित्रकारी करते हैं। हां, कुछ शौकिया कलाकारों ने इसे अपना लिया है और चित्रकारी के पारंपरिक तरीकों का पालन करना जारी रखा है। हालांकि, इन स्क्राल चित्रों से जुड़े धार्मिक प्रदर्शन अब कम ही किए जाते हैं। हाल ही में व्यापक रूप से दर्शकों को आकर्षित करने के लिए श्रीराम और श्रीकृष्ण सहित कई हिंदू देवी-देवताओं को भी फड़ चित्रों में प्रमुखता से चित्रित किया गया है। कुछ वर्षों में फड़ की निर्माण प्रणाली में बदलाव आया है, जिसमें कारीगर शाही शिकार या धार्मिक छवियों जैसे मानक दृश्यों के चित्रों को पहले से ही तैयार कर लेते हैं। व्यावसायिक खरीदारों को ध्यान में रखते हुए, कारीगरों ने स्क्राल की लंबाई को दो से छह फीट तक छोटा भी कर दिया है।

फड़ चित्रकारी को प्रोत्साहित करने के लिए लोकप्रिय फड़ कलाकार श्रीलाल जोशी ने भीलवाड़ा जिले में जोशी कला कुंज (वर्तमान में चित्रशाला) की स्थापना की थी। यह संस्था वर्ष 1960 से सर्व समुदाय को फड़ चित्रकारी का प्रशिक्षण देने में कार्यरत है। श्रीलाल जोशी को 2006 में पद्मश्री और 2007 में शिल्पगुरु पुरस्कार से अलंकृत किया गया।

सौजन्य- https://mapacademy.io

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