जागरण संवाददाता, दक्षिणी दिल्ली। सराय काले खां स्थित बांसेरा पार्क में रेख्ता फाउंडेशन की ओर से चल रहे कार्यक्रम के दूसरे दिन लखनवी अंदाज का जादू चला। उर्दू शायरों के फिल्मी शाहकार के तहत यादगार फिल्मी गीत और उन पर कथक की लयबद्ध प्रस्तुति ने दर्शकों को झूमने-गुनगुनाने पर मजबूर किया। हुमा खलील के निर्देशन में कलाकारों ने तहजीब, नजाकत और नफासत के हर रंग को अपने नूरानी नृत्य में उकेरा। इससे पहले संगीतकार सलीम-सुलेमान ने प्रस्तुति दी। \“\“नूर-ए-इलाही...\“\“, \“\“अली मौला...\“\“ आदि से सूफी संगीत की परंपरा से जोड़ा।
वहीं वसीम बरेलवी, विजेंद्र सिंह परवाज, जावेद अख्तर, हिलाल फरीद जैसे शायरों ने दिल्लीवासियों को मुहब्बत की भीनी खुशबू के अहसास से सराबोर किया। विजेंद्र सिंह परवाज ने वतनपरस्ती को बयान करते हुए सनाया \“\“जर्रा-जर्रा तेरी धरती का गुलों सा महके, सबको रास आए ऐ खुदा मेरा वतन की खुशबू\“\“। वहीं अज्म शाकिरी के शेर \“\“तेरे ख्याल के शम्आ जलाए बैठे हैं, कोई तो फूल चढ़ाए इसी तमन्ना में, हम अपने आपको पत्थर बनाए बैठे हैं\“\“ ने खूब वाहवाही बटोरी। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
दयार-ए-इजहार के तहत मिर्जा गालिब पर आधारित ड्रमेटिक रीडिंग में शेखर सुमन ने गालिब के दौर को जीवंत किया तो वहीं साहित्यिक विमर्श \“\“रश्म-उल-खत\“\“ में उर्दू, देवनागरी और रोमन स्क्रिप्ट पर चर्चा की गई। कवि व लेखक जावेद अख्तर ने भारतीय संस्कृति में विदेशी शब्दों को आत्मसात किए जाने का सिलसिला सुनाया। कहा, रिक्शा को सभी को लोग आमतौर पर आटोरिक्शा कहते हैं। जबकि आटो ग्रीक शब्द है और रिक्शा जर्मन शब्द है।
दोनों यहां इंडिया में आकर मिले। वहीं जूही बब्बर सोनी ने एकल नाट्य प्रस्तुति में आजादी के पहले और बाद के सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिदृश्य को उकेरा। इसका निर्देशन मकरंद देशपांडे ने किया। ध्रुव सांगरी ने नुसरत फतेह अली खां की मशहूर सूफी कव्वाली \“\“शाहे मर्दान-ए-अली...\“\“ और \“\“अली मौला, अली मौला...\“\“ से महफिल में चार चांद लगाया। वहीं आयोजन के तहत भारतीय पकवानों और जायकों के इतिहास पर भी चर्चा हुई। |