हरियाली के पीछे का विज्ञान और संतुलन का संकट (Image Source: Freepik)
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, नई दिल्ली। एक बात तो स्पष्ट है कि वृक्ष और वन में अंतर होता है। वन की परिभाषा में उसकी प्रजातियां भी निहित होती हैं। किसी भी स्थान पर कोई भी वृक्ष लगा देने मात्र से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह वहां के पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए लाभकारी सिद्ध होगा। कुछ समय से यह बहस भी बढ़ी है कि हमारे लिए जल, वन और वृक्ष प्रजातियों का क्या महत्व है और इनका चयन किस आधार पर होना चाहिए? यह बहस हम अक्सर एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे तक बिना किसी ठोस निष्कर्ष के ले जाते रहे हैं। विज्ञान कुछ प्रश्नों के उत्तर देता है, लेकिन कुछ स्थानों पर वह भ्रम भी उत्पन्न करता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि विज्ञान को भी वृक्ष के प्रति अपनी दिशा स्पष्ट करनी होगी- क्या उसका शोध समयानुकूल, क्षेत्र-विशिष्ट और सटीक है? क्योंकि हर वृक्ष, जो हमारे आस-पास है, उसका योगदान उसके फायदे या नुकसान के आधार पर ही समझा जा सकता है। किसी भी प्रजाति को उपयोगी बनाने के लिए उसके मूल वैज्ञानिक और पारिस्थितिक स्वरूप को समझना आवश्यक है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
दुनिया में वृक्षों का विकास वनों के माध्यम से हुआ। आज जो विविध प्रजातियां हम देखते हैं, उनमें से कई अपने मूल प्राकृतिक वनों से हटकर अलग क्षेत्रों में विकसित की गई हैं। इन्हें मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप बदला, संवर्धित किया और उपयोगी बनाया। विशेषकर फलों की प्रजातियां और उनसे जुड़े आर्थिक उत्पाद आज वैश्विक विषय हैं। ये प्रजातियां उपयोगिता के आधार पर चुनी गई, न कि इस आधार पर कि वे मूल रूप से किस क्षेत्र की हैं।
उदाहरण के लिए हिमालय में सेब की प्रजातियों को देखें। यह हिमालय की मूल प्रजाति नहीं थी। इसे ब्रिटिश काल में लाया गया और स्थापित किया गया। समय के साथ यह प्रयोग सफल हुआ और आज सेब भारत का प्रमुख फल है। यदि सेब के पारिस्थितिक योगदान को देखें, तो यह उस स्तर का नहीं है, जैसा उस स्थान की मूल वृक्ष प्रजातियां दे सकती थीं। परंतु क्योंकि आर्थिक और पारिस्थितिक दृष्टिकोण अलग हैं, इसलिए यहां दोनों को टकराव में लाना उचित नहीं। फिर भी, यह तय है कि किसी भी क्षेत्र में वानस्पतिक और जलवायु की दृष्टि से लगाए गए मूल वनों की समीक्षा व संरक्षण आवश्यक है।
इसी तरह सागौन भारत के दक्षिणी भागों में पनपने वाला वृक्ष है। यह हिमालय की तलहटी में भी उग सकता है, लेकिन इसका पारिस्थितिक योगदान वहां लगभग शून्य होता है, बल्कि इसका प्रभाव प्रतिकूल भी पड़ सकता है। 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में हिमालय की तलहटी में सागौन इसलिए बढ़ाया गया क्योंकि इसका टिंबर (लकड़ी) मूल्यवान है। तो वहीं पाइन (चीड़) को भी बढ़ावा इसलिए मिला क्योंकि उससे टर्पेंटाइन मिलता है। इस प्रकार आर्थिक महत्व के कारण कई प्रजातियां अपनी मूल पारिस्थितिकी से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाने लगीं, लेकिन पारिस्थितिकी के सिद्धांत कहते हैं कि किसी भी बाहरी प्रजाति को किसी नए स्थान पर थोप देना, चाहे वह विदेशी हो या किसी दूसरे जलवायु क्षेत्र की, उस क्षेत्र की मिट्टी, हवा और जल के साथ उसका प्राकृतिक तालमेल नहीं बनने देता। प्रकृति ने हर क्षेत्र के वृक्षों के लिए संतुलन निर्धारित किया है और 100 वर्षों में हमने इस संतुलन को कई स्थानों पर बिगाड़ दिया है।
हमने वृक्षारोपण को केवल वृक्ष लगाने और उन्हें जीवित रखने भर तक सीमित समझ लिया- जबकि वृक्ष की असली परिभाषा उसके मिट्टी, हवा, जल से संबंध और बदले में वह पारिस्थितिक योगदान क्या देता है, यही है। यदि यह संतुलन बिगड़ा, तो लगाया गया वृक्ष लाभ के बजाय हानि पहुंचा सकता है। आज विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि शहरों में बढ़ते प्रदूषण के कारण किन वृक्ष प्रजातियों का चयन होना चाहिए। यह अध्ययन महत्वपूर्ण है, परंतु यह भी ध्यान देना चाहिए कि इसकी मात्रा और उसका अन्य प्रदूषण स्रोतों की तुलना में प्रभाव क्या है। शहरों में गाड़ियां, उद्योग, एयर कंडीशनर- ये प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं, न कि वृक्ष। हमें ये भी जानना चाहिए कि आज मीथेन सबसे घातक हे और ये धान की खेती से ज्यादा पैदा होती है। तो क्या इनसे मुक्त हो सकते हैं? इसलिए यह आवश्यक है कि तुलनात्मक अध्ययन किए जाएं- कौन-सा वृक्ष कहां लगाया जाए, उसका कैनोपी कवर, टिंबर, स्थायित्व, तेज हवाओं में बाधक और उससे होने वाला संभावित वायुविषाक्त प्रभाव, निर्णय लेने में सहायक होंगे।
गलती की न हो गुंजाइश
शहर हों या गांव- वृक्षों का चयन जलवायु, मिट्टी और स्थानीय पारिस्थितिकी के आधार पर होना चाहिए। वृक्षों का जीवन लंबा होता है, उनका योगदान भी दीर्घकालिक होता है। इसलिए पौधारोपण में गलती की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। आवश्यकता है कि हम वातावरण केंद्रित वानिकी की दिशा में स्पष्ट दृष्टिकोण तय करें कि कहां किस प्रकार का वन और कौनसी प्रजातियां उपयुक्त होंगी। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थानों द्वारा इस दिशा में कार्य भी हुआ है, पर इसे व्यापक रूप देने की आवश्यकता है। किसी भी प्रजाति का चयन केवल इस आधार पर न हो कि वह कहीं भी उग सकती है, बल्कि इस आधार पर हो कि वह उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी को पोषित करती है या नहीं और ना ही उसका खंडन इस बात से हो कि उसकी उत्सर्जित हवा विषाक्त है, खास तौर से तब तक जब तक मात्रा भारी ना हो। ध्यान रहे कि शहरी गतिविधियां इनसे भी ज्यादा जहर उगलती हैं। अंतत: विज्ञान को विश्लेषित तथा तुलनात्मक भी होना चाहिए ताकि सटीक सलाह भी मिल सके।
(लेखक पद्मभूषण से अलंकृत पर्यावरणविद् हैं)
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