निष्काम कर्मयोग माया को पराजित करने का सर्वोत्तम उपाय है
आचार्य नारायण दास (भागवतमर्मज्ञ आध्यात्मिक गुरु)। पिछले प्रसंग में राजा निमि की दो जिज्ञासाओं का समाधान यतिवर हरि और कवि नामक योगेश्वर कर चुके थे। तत्पश्चात राजा निमि ने नौ योगेश्वरों के समक्ष अपनी तीसरी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए पूछा— विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
यस्य विष्णोरीर्शस्य मायिनामपि मोहिनाम्।
मायां वेदितुमिच्छामो भगवंतो ब्रुवंतु नः।।
हे भगवन्! मैं उस परमेश्वर श्रीहरि की माया के विषय में जानना चाहता हूं, जो स्वयं मायावी जनों को भी मोहित कर देती है। कृपया उसका स्वरूप समझाइए।
राजा की इस गहन जिज्ञासा का समाधान तीसरे योगेश्वर अंतरिक्ष जी ने दिया। उन्होंने बताया कि भगवान की माया उनकी दैवी शक्ति है, जो स्वभाव से ही असीम, अवर्णनीय और अनंत है। यह संपूर्ण सृष्टि उसी माया का चमत्कार है। भगवान स्वयं कारण बनकर, पांच महाभूतों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के माध्यम से असंख्य शरीरों की रचना करते हैं और उनमें अंतर्यामी रूप से स्थित होकर मन, बुद्धि और इंद्रियों का संचालन करते हैं।
परंतु, जब जीव अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को भूलकर देहाभिमान में डूब जाता है, तब वह माया के जाल में फंस जाता है। यही अज्ञान ही उसका सबसे बड़ा बंधन बन जाता है। वह शरीर और इंद्रियों को ही सत्य मानकर विषयभोग में लिप्त हो जाता है। आसक्ति की यह गांठ उसे कर्मों की जंजीरों में जकड़ देती है, जहां फलेच्छा से किए गए कर्म उसे जन्म-मृत्यु के अनंत चक्र में घुमाते रहते हैं।
शुभ कर्मों से सुख और अशुभ कर्मों से दुख प्राप्त कर वह इस संसार-सागर में डूबता-उतराता रहता है। यतिवर अंतरिक्ष जी उपदेशित हैं, हे राजन्! जो मनुष्य इस दुखमय संसार से मुक्त होना चाहता है, तो उसे माया के रहस्य को समझना होगा। उसके लिए यह जानना आवश्यक है, हम यह शरीर नहीं, बल्कि शुद्ध, शाश्वत, चैतन्यमय आत्मा हैं। शरीर, मन और इंद्रियां तो केवल उपकरण हैं, जिनके माध्यम से आत्मा कर्म का अनुभव करती है।
माया से मुक्ति का एकमात्र उपाय है, शाश्वत ज्ञान और नश्वर पदार्थ से सहज अनासक्ति। श्रीगुरुगोविंदकृपा और सत्संगादि के अमोघ प्रभाव से जब मनुष्य को आत्मज्ञान हो जाता है, तब वह सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान, ईर्ष्या-मात्सर्य और राग-द्वेषादि से विमुक्त हो जाता है।
विवेक-विचार के द्वारा उसे यह बोध हो जाता है, संसार का वैभव चारदिन की चांदनी के समान क्षणिक हैं, तब उसका मन स्थिर हो जाता है। उसकी लोक मृगतृष्णा मिट जाती। इस स्थिति को समुपलब्ध मनुष्य स्थिति बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना फलासक्ति से रहित कर्तव्यबोधपूर्वक सहज कर्म करता है। यही निष्काम कर्मयोग है, जो माया को पराजित करने का सर्वोत्तम उपाय है।
जीवन-प्रबंधन की दृष्टि से भी यह शिक्षा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आज का मनुष्य भौतिक उपलब्धियों के मोह में उलझा हुआ है। वह सफलता, वैभव और भोग को ही जीवन का लक्ष्य मान बैठा है। परिणामस्वरूप तनाव, असंतोष और भय उसके साथी बन गए हैं। श्रीमद्भागवत हमें शिक्षा देती है कि यथार्थ जीवन-प्रबंधन बाहरी व्यवस्था से नहीं, अपितु अभ्यांतरिक शुचिता और समता में है। आत्मबोध को समुपलब्ध व्यक्ति के मायाबंधन स्वतः ही कट जाते हैं। उसके जीवन में स्थायित्व, व्यवहार और विचार में पारदर्शिता एवं समता और मन में अविचल शांति प्रतिष्ठित हो जाती है।
माया का रहस्य केवल दार्शनिक विचार नहीं, अपितु व्यावहारिक साधना का पथ है, जो समभाव, श्रद्धा और अनासक्त जीवन का आधार बनता है। श्रीमद्भागवतमहापुराण के दर्शन और प्रबंध को आत्मसात कर कोई भी व्यक्ति माया से विमुक्त होकर परम शांति के महासागर में सानंद गोते लगाता है।
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