आपातकाल की आग पश्चिम चंपारण में नहीं रोक पाई थी कांग्रेस की राह।
सुनील आनंद, बेतिया (पश्चिम चंपारण)। आपातकाल के बाद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बिहार में बुरी तरह से पराजित हुई थी। 1977 में चुनाव कराया गया था। करीब 25 वर्षों से राज्य में सत्ता पर काबिज कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई थी। आपातकाल में कांग्रेस के शासन के खिलाफ कई राजनीतिक दल एकजुट हुए थे। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में गठित भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) का भी जनता पार्टी में विलय हो गया था। पूरी एकजुटता के साथ कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा गया था। विधानसभा की 324 सीटों में से कांग्रेस 57 पर सिमट गई थी।
कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद पश्चिम चंपारण में पार्टी का वर्चस्व कायम रहा। यहां की नौ विधानसभा सीटों में से आठ पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीत गए थे, जबकि सिर्फ एक विधानसभा सीट से कांग्रेस हारी थी।
कांग्रेस तलाश रही जमीन
चनपटिया विधानसभा से जनता पार्टी के वीर सिंह चुनाव जीत गए थे। अब यह वही कांग्रेस है, जो पिछले डेढ़ दशक से खुद के लिए जिले में जमीन तलाश रही है।
1967 से नौतन विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे कांग्रेस के कद्दावर नेता केदार पांडेय के नेतृत्व में जिले में कांग्रेस ने आपातकाल के चलते उपजे गुस्से के बावजूद सफलता हासिल की थी।
केदार पांडेय बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे थे। 1977 में बेतिया से गौरीशंकर पांडेय चुनाव जीते थे। वे 1990 तक बेतिया के विधायक रहे। 1990 के चुनाव में उन्हें भाजपा के डा. मदन प्रसाद जायसवाल ने हरा दिया था।
सिकटा से पहली बार कांग्रेस के फैयाजुल आजम चुनाव जीते थे। जबकि शिकारपुर विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक सीताराम प्रसाद पर दूसरी बार मतदाताओं ने भरोसा जताकर जीत दिलाई थी।US-India trade relations,India tariff dispute,America India relations,US energy secretary Chris Wright,India Russia oil imports,India US energy partnership,Trump India tariff,Russia Ukraine war,Indian oil purchase,America tariff on India
कांग्रेस विरोधी लहर का कोई असर नहीं
रामनगर से कांग्रेस के अर्जुन विक्रम शाह और लौरिया से कांग्रेस के विश्वमोहन शर्मा पहली बार चुनाव जीते थे। बगहा के पूर्व कांग्रेस विधायक नरसिंह बैठा और धनहा के पूर्व कांग्रेस विधायक हरदेव प्रसाद पर आपातकाल की कांग्रेस विरोधी लहर का कोई असर नहीं पड़ा। दोनों प्रचंड बहुमत से चुनाव जीते थे।
यह चुनाव न केवल कांग्रेस की राज्यव्यापी हार का गवाह बना, बल्कि पश्चिम चंपारण में कांग्रेस की पकड़ और संगठनात्मक ताकत का भी सबूत पेश किया था।
जिले में कांग्रेस की यह मजबूती स्थानीय नेताओं की सक्रियता, संगठन की मजबूती और जनता के साथ नजदीकी रिश्तों का परिणाम थी।
हालांकि आने वाले वर्षों में धीरे-धीरे यह स्थिति बदल गई। 1900 के बाद भाजपा और अन्य दलों ने जिले में अपनी जमीन तलाशनी शुरू की और कांग्रेस का दबदबा खत्म होता चला गया।
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