भगवान राम से किसी को मिला ज्ञान और किसी को भक्ति, पढ़ें रामायण से जुड़ी प्रमुख बातें

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पढ़ें रामायण से जुड़ी प्रमुख बातें।



स्वामी मैथिलीशरण, (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। संसार में निश्छलता का दुरुपयोग इतिहास में निरंतर प्रवहमान रहने वाला वह अर्धसत्य है, जो कभी-कभी सत्य को भी झुठला देता है। महिमा मृगी कौन सुकृती की खल बधि बिसिखन बांची।। संसार में ऐसा कौन पुण्यात्मा हुआ, जिसकी महिमा मृगी, पुण्य, तपस्या, पराक्रम और साधना को ईर्ष्यालुओं ने अपने कटु शब्दों के द्वारा बेध न दिया हो। पुण्यात्मा के पास केवल सत्य और प्रेम का बल होता है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
बंदउं अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ।।

काकभुशुंडि जी ने इसी प्रेम को परम तत्व माना है।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पाबइ छेमा।।


गुरुदेव महाराज वशिष्ठ की शगुन-अपशगुन, सुदिन-सुमंगल की व्याख्या सुनकर इतने अधिक उत्साहित हुए कि वे महारानी कैकेयी के राम प्रेम की हृदय भूमि को सिंचित करने की भावना से उनके पास चले गए, क्योंकि उनका राम के प्रति सत्य प्रेम था। वे असत्य से परिचित ही नहीं थे। सूर्य को जन्म देने वाला अंधकार को क्या जाने? पर जब काल विपरीत होता है तो वह व्यक्ति के अंदर से धर्म, बुद्धि, बल और विवेक का हरण कर लेता है।
काल दंड गहि काहु न मारा।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।


अपनी भावपूर्ण मन:स्थिति के बिल्कुल विपरीत कैकेयी को देखकर दशरथ जी दुख के गर्त में गड़ गए और पुन: उस स्थिति को स्थापित करने के उद्देश्य से उन्होंने जो भी बोला, उसे भवितव्यता या प्रभुलीला कहने के अतिरिक्त समाधान देने का कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता है। वह कैकेयी से कहते हैं, बताओ तुम्हारा अहित किसने किया? किस राजा के सिर के मैं दो टुकड़े कर दूं या किसे राज्य से बाहर कर दूं? वे उन्हें सुमुखि और सुलोचनि कहकर भौतिक दृष्टि से भी रामराज्य के परमार्थ को साध लेना चाह रहे थे। किंतु मंथरा ने प्रेम के दूध में ममता की खटाई डाल दी, जिसे अहमता और ममता के कारण कैकेयी समझ नहीं पाईं। उनका स्वार्थ महाराज दशरथ और परमार्थ राम दोनों उनसे दूर चले गए। दशरथ जी ने अपने प्रिय राम की प्रियता को अपने प्रिय प्राण देकर शरीर यज्ञ की पूर्णाहुति कर दी।

इस पूर्णाहुति को भगवान ने ज्ञानाग्नि में भस्म करते रावण वध के पश्चात देवराज इंद्र के साथ अपने पुत्र को बधाई देने के लिए पुन: पधारे महाराज को अंतर्दृष्टि देकर पूर्ण करके भेज दिया। परशुराम जी और महाराज दशरथ दोनों की दृष्टि के आवरण को भगवान श्रीराम ने अपने शील गुण और अपनी अखंड ज्ञानदृष्टि से अनावृत कर दिया। आते समय महर्षि परशुराम को जनक की सभा में भगवान राम और लक्ष्मण ने प्रणाम किया और जाते समय परशुराम ने राम और लक्ष्मण को प्रणाम किया। उसी तरह महाराज दशरथ को भी लंका में रावण पर विजय प्राप्ति के पश्चात जब दशरथ जी बधाई देने पधारे तो पहले तो उनकी भावना की रक्षा के लिए श्रीराघवेंद्र ने अपने पिता रूप में दशरथ को प्रणाम किया, पर अंत वे पिता जी के नेत्रों से अपने नेत्रों को मिलाकर उन्हें परम ज्ञान देकर धन्य कर दिया, भेद भक्ति की पूर्णाहुति अभेद स्थिति में स्थित होना है।
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना।
चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।


श्रीराम ने पूरी रामायण में किसी को ज्ञान दृष्टि से भक्ति दी तथा किसी को भक्ति दृष्टि से ज्ञान में स्थित किया। श्रीराघवेंद्र के धर्मरथ का यही शौर्य और धैर्य व सत्य शील का संतुलन है। महारानी कैकेयी यह जानती हैं कि राम सब माताओं से प्रेम करते हैं, फिर भी वे मुझसे सबसे अधिक प्रेम करते हैं। पर ममता का मल अहमता के दूध को फाड़े बिना नहीं रह सका। उनके हृदय का यह भाव कि राम भले ही सबसे अधिक प्रेम हमसे करते हैं, पर संसार के लोग तो राम को कौशल्या का बेटा मानते हैं, मेरा नहीं। संसार के अधिकांश बड़े से बड़े, सुशिक्षित, सफल और शासकों के जीवन का यह दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष उन्हें कहीं का नहीं रहने देता है कि लोग क्या कह रहे हैं, या क्या कहेंगे? संसार के लोगों को यह अवश्य समझना चाहिए कि हर मनुष्य में ईश्वर है। यह तो ज्ञान है, पर हर व्यक्ति को मनुष्य मानते रहना व्यवहार है। जहां हमने कोई गलती की तो भगवान हमसे दूर हो जाएंगे, फिर चाहें वे कैकेयी हों या सीता! जो प्राप्त है, वह कृपा है। जो हम चाहते हैं, वह वासना है।

कैकेयी को भरत प्राप्त हैं। भरत से शरीर को जन्म देकर भी वे भरत के हृदय को नहीं समझ पाईं। अविद्या ने वासना की खिड़की से आकर कामना के वायु के झोंके से जती के ज्ञान दीपक को बुझा दिया। पर, गोस्वामी तुलसीदास जी का वेदमर्म कहता है कि पिताजी के प्रेम की रक्षा प्रभु राम ने ज्ञान दृष्टि देकर की और माता कैकेयी के राम के प्रति अंतरंग में छिपे हुए प्रेम की रक्षा प्रेममूर्ति भरत ने की। कड़वी दवा देकर मीठा तथा परम कल्याणकारी परिणाम भरत ने माता कैकेयी को दिया। समाज को समझना चाहिए कि महत्व इसका नहीं है कि बात हम मीठी वाणी बोल रहे हैं कि कड़वी, निष्कर्ष यह निकलना चाहिए कि हम व्यवस्था को राम से जोड़ रहे हैं या राम से तोड़ रहे हैं।
लक्ष्मण जी के कठोर वचन

सुमंत जी के सम्मुख लक्ष्मण जी ने दशरथ जी को कुछ कठोर वचन कहे, क्योंकि लक्ष्मण समझ गए थे कि यदि मैं इस समय सुमंत जी के द्वारा कुछ कठोर वचन कहला कर भेज दूं तो वे कम से कम 14 वर्ष तक भैया राम और माता सीता को लेकर निश्चिंत रहेंगे। वह समझेंगे कि जब लक्ष्मण मेरे लिए इतने कटु वचन बोल सकता है तो यदि मार्ग में राम-सीता पर कोई भी कष्ट आएगा तो लक्ष्मण उसे क्षमा नहीं करेगा। कटु वचन बोलने में लक्ष्मण का पिता के प्रति अनंत प्रेम है और माता कैकेयी के प्रति 14 वर्ष तक कटु व्यवहार के पीछे केवल रामनिष्ठ प्रेम और दोनों को राम में निष्ठ रखना है।

श्रीरामचरितमानस में श्रीभरत या श्री लक्ष्मण ने महाराज दशरथ की कदाचित कुछ आलोचना की है तो उसका परम गूढ़ अर्थ यह है कि जब वे परम सत्य राम के पिता हैं तो कैकेयी जी के रूप में उन पर पड़े मंथरा के कुसंग और माया को क्यों नहीं समझ पाए? यही ज्ञान दृष्टि श्रीभरत के परम प्रेममय हृदय ने कैकेयी को दी। राम में ध्यनस्थ रखा और लक्ष्मण ने अपने पिता जी को निश्चिंत कर दिया। वह जानते थे कि परम तत्व तो यही है कि प्रभु पिता जी को भी मिलेंगे और माता कैकेयी को भी।
“चरित करत नर अनुहरत”

लिखकर तुलसी वेदों का सार बता रहे हैं कि राम में अपने प्रति कम प्रेम और अधिक प्रेम देखकर दुख और गर्व में मत चले जाओ, वे तो सदा एकरस हैं। तुलसीदास जी ने भी दशरथ जी और कैकेयी जी के प्रति कुछ कटु शब्द लिखे हैं, उसका आधार भी केवल उनकी राम निष्ठा ही है। केवट ने चित्रकूट के मार्ग में भरत पर संदेह किया या लक्ष्मण ने भरत पर संदेह किया और कटु बोल दिया, उसके पीछे भी उनका राम के प्रति अनंत अनिर्वचनीय प्रेम था।

संसार चरित्र देखता है। भक्त उसी में भगवान की माया देखते हैं। महाराज दशरथ ने जिस राम नाम का जप करते करते अपने प्राणों का परित्याग कर दिया, उसी नाम के प्रभाव ने सगुण राम के द्वारा निर्गुण निराकार में स्थित करके यह बता दिया कि वह तो स्वयं ही राम के पुत्र हैं। राम ही सबके पिता हैं। माता कैकेयी को भी भगवान ने हृदय से लगाकर उनकी व्यथा को दूर कर उन्हें और उनके पुत्र भरत को विश्व वंदित बना दिया।

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