आइएलए यूपीकान-2025 में शामिल डाक्टर
जागरण संवाददाता, बरेली। खांसी और सांस लेेने में तकलीफ को मरीज और चिकित्सक दोनों ही इसे टीबी समझकर इलाज करते रहते हैं। दो से तीन साल जब तक यह पता चलता है कि मरीज में इंस्टस्टिशियल लंब डिजीज (आइएलडी) का पता चलता है, तब तक काफी देर हो चुकी है। ऐसी स्थिति में फेफड़े अक्सर फाइब्रोसिस से सिकुड़ जाते हैं और फिर उनकी उम्र आमतौर पर तीन से पांच साल तक ही खिंचती है। जबकि इस बीमारी का समय पर पता चल लग जाए तो दवाओं से इन्हें रोक पाना काफी आसान हो जाता है और मरीज 15-20 साल तक सामान्य जिंदगी जी सकता है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
आइएमए के यूपीकान 2025 में नोएडा से आए सीनियर पल्मोनोलाजिस्ट (फेफड़ा व छाती रोग विशेषज्ञ) डा. दीपक तलवार ने आइएलडी को लेकर बताया कि इसमें फेफड़ों के ऊतकों की सूजन और निशान (फाइब्रोसिस) शामिल हैं। ये परिवर्तन फेफड़ों की आक्सीजन को रक्तप्रवाह में स्थानांतरित करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं, जिससे सांस लेना अधिक कठिन हो जाता है।
स्थिति गंभीरता और प्रगति में भिन्न हो सकती है, और इसके कारण विविध हो सकते हैं, जिसमें प्रदूषण और कभी-कभी कोई ज्ञात कारण शामिल नहीं हो सकता है। उन्होंने बताया कि आइएलडी के शुरुआती लक्षणों का जान पाना बेहद मुश्किल होता है। बढ़ती उम्र या किसी अन्य कारणों से फेफड़ों का लचीलापन कम होने लगता है। सांस फूलना और खांसी आना भी इसके लक्षणों शामिल है।
खास बात ये है कि एक्सरे में इस बीमारी को पकड़ना मुश्किल होता है। सीटी स्कैन या अन्य जांचों के बाद ही आइएलडी होना मालूम हो पाता है। इस बीच दो से तीन साल तक का वक्त ऐसी ही निकल गया तो फेफड़ों में फाइब्रोसिस का खतरा काफी बढ़ जाता है। ऐसे मे फेफड़े सिकुड़ने शुरू हो जाते हैं और धीरे-धीरे मरीज की सांस लेने की तकलीफ भी बढ़ जाती है।
फेफड़ों में तीन तरह की बीमारियों में कुछ का ही इलाज
डा. दीपक तलवार का कहना है कि इंस्टस्टिशियल लंब डिजीज करीब तीन सौ तरह की होती है। इसमें कुछ का मोनोक्लोनल एंटीबाडीज दवाओं से उपचार दिया जाता है, जिससे शरीर की रोगाणु-रोधी प्रतिरक्षा प्रणाली को तमाम गंभीर बीमारियों से लड़ने में मदद की जा सके। जबकि तमाम बीमारियों का आज भी समुचित इलाज उपलब्ध नहीं है। केवल दवाओं और थेरेपी के माध्यम से रोगी की आयु प्रत्याशा को बढ़ाया की कोशिश की जा सकती है।
बढ़ता प्रदूषण फेफड़ों के साथ अन्य अंगों को कर रहा खराब
डा. दीपक तलवार का कहना है कि दिल्ली व एनसीआर के साथ ही तमाम दूसरे शहरों में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है। इससे दमा के साथ फेफड़ों की बीमारियां बढ़ रही है। इतना ही नहीं, हमारे दूसरे अंगों को भी इससे काफी नुकसान पहुंच रहा है। इसे रोके बगैर इन गंभीर बीमारियों की रोकथाम काफी चुनौतीपूर्ण है। उन्होंने बताया कि दमा की बीमारी में भी एंटी बाडीज दवाएं देकर उन्हें आसानी से रोक सकते हैं और मरीज लंबे समय तक सामान्य जीवन जी सकता है।
निमोनिया भी फेफड़ों पर डालता बेहद खराब असर : डा. अशोक
कानपुर से आए पल्मोनोलाजिस्ट डा. अशोक कुमार सिंह ने निमोनिया के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इस बीमारी के प्रारंभिक लक्षणों में खांसी, बुखार और पसलियों के चलने जैसी दिक्कतें दिखाईं देती हैं। इससे फेफड़ों को काफी नुकसान पहुंचता है। समय से इलाज न कराया गया तो निमोनिया बाद में गंभीर रोग में परिवर्तित हो जाता है। उस समय मरीज को दवाओं से नियंत्रित करने में काफी परेशानी आती है। बेहतर है कि निमोनिया की सही समय पर पूरी जांचें और इलाज ही जिंदगी को सुरक्षित रखने में सहायक है।
अब टीबी मरीजों को दी जा रही सटीक दवाएं : डा. नोटियाल
उत्तराखंड से आए पल्मोनोलाजिस्ट डा. आरजी नौटियाल ने टीबी की आधुनिक जांचों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि टीबी के लिए अब तक बलगम और एक्सरे से जांच होती थी, लेकिन अब इसके लिए मरीज को शरीर के मुताबिक वही दवा मिले, जो उनके शरीर में मौजूद टीबी को खत्म कर सकेगी। यह सीबी नेट मशीन से संभव हो सका है। टीबी रोगियों का सीबी नेट मशीन की सहायता से एमडीआर टेस्ट किया जाता है। जिससे इलाज मेें वहीं दवा दी जाती है, जो सीधे रोग को रोकने में मदद करे।
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