जागरण संवाददाता, रांची । सोशल मीडिया आज दुनिया का सबसे प्रभावशाली माध्यम बन चुका है। कुछ मिनटों की लोकप्रियता पाने की चाहत, त्वरित प्रसिद्धि और कंटेंट क्रिएटर बनने की लालसा युवाओं को जिस गति से अपनी ओर खींच रही है, वही गति उन्हें मानसिक अवसाद, नशे की लत और शैक्षणिक गिरावट की ओर भी धकेल रही है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और रील्स पर चमकती दुनिया के पीछे जो काली सच्चाई है, वह अब अस्पतालों में दिखाई देने लगी है। राजधानी रांची स्थित रांची इंस्टीट्यूट आफ न्यूरो-साइकियाट्री एंड एलाइड साइंसेज (रिनपास) और राजेंद्र इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स) के मनोचिकित्सा विभाग में हर सप्ताह 25 से 30 नए युवा ऐसे पहुंच रहे हैं, जो या तो गहरे अवसाद में हैं या नशे के बुरी तरह आदि हो चुके हैं। इन अधिकांश मामलों में सोशल मीडिया की लत मुख्य कारण के रूप में सामने आई है।
कंटेंट क्रिएटर बनने की चाहत, लेकिन असफलता पर गहरा अवसाद :
रिनपास के डाक्टरों के अनुसार क्लीनिकल स्टडी में यह सामने आया है कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर रात-दिन लगे रहने वाले युवा कम समय में अधिक लोकप्रियता पाने की चाहत रखते हैं। रील्स बनाकर, वीडियो डालकर, डांस-एक्टिंग या नए ट्रेंड कापी कर यह उम्मीद करते हैं कि उन्हें भी रातों-रात लाखों लाइक्स और फालोअर्स मिल जाएंगे।
लेकिन वास्तविकता यह है कि 10,000 में शायद 1 युवा ही सफल हो पाता है, शेष युवा लगातार विफलता, तुलना और नकारात्मक कमेंट्स की वजह से टूटने लगते हैं। अवसाद से बाहर आने के लिए कई युवा नशे का सहारा लेते हैं, जिसकी भनक माता-पिता को तब तक नहीं लगती जब तक स्थिति गंभीर न हो जाए।
रिनपास के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डा. सिद्धार्थ सिन्हा बताते हैं कि सोशल मीडिया बच्चों की पढ़ाई, नींद, ध्यान और मानसिक विकास को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। कई कंटेंट ऐसे हैं जिन्हें माता-पिता बच्चों के साथ बैठकर नहीं देख सकते, लेकिन वही बच्चा अकेले में रातभर वही कंटेंट देखता है।
यह आदत उसके मस्तिष्क के विकास को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। वे बताते हैं कि युवा आज अपनी वास्तविक पहचान भूलकर डिजिटल दुनिया की नकली प्रसिद्धि के पीछे भाग रहे हैं। लगातार रील्स देखते-देखते उनका दिमाग तेज उत्तेजना का आदी हो जाता है, जिससे पढ़ाई में एकाग्रता खत्म हो जाती है।
जिसका नतीजा यह होता है कि उनकी शैक्षणिक प्रदर्शन का गिरना, व्यवहार में चिड़चिड़ापन, समाज से कटाव, नींद की कमी और धीरे-धीरे अवसाद। कई बच्चे रात 1 से 4 बजे तक फोन इस्तेमाल करते हैं। माता-पिता को लगता है कि बच्चा पढ़ाई कर रहा है, जबकि वह गुप्त रूप से रील्स या अन्य उत्तेजक कंटेंट देख रहा होता है।
आस्ट्रेलिया और डेनमार्क ने उठाया कड़ा कदम, 15–16 वर्ष से पहले सोशल मीडिया पर रोक
डिजिटल खतरे को देखते हुए आस्ट्रेलिया ने सबसे पहले 2024 में 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पूरी तरह बंद कर दिया था। इस नियम की अवहेलना करने पर प्लेटफार्मों पर करोड़ों का जुर्माना लगाया जा सकता है।
अब डेनमार्क ने 7 नवंबर 2025 को 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्रतिबंधित कर दिया है। वहां की सरकार ने स्पष्ट किया कि बच्चों की नींद खराब हो रही है, ध्यान भटक रहा है और वे हिंसात्मक व आत्मघाती कंटेंट के संपर्क में आ रहे हैं।
इसलिए यह कदम आवश्यक है। यह भी कहा गया कि टेक कंपनियां बच्चों की सुरक्षा पर पैसा खर्च करने के बजाय केवल लाभ कमाने में लगी हैं। दिलचस्प बात यह है कि डेनमार्क में केवल उन्हीं बच्चों को 13 वर्ष की उम्र में सोशल मीडिया की अनुमति मिल सकती है, जब उनके अभिभावक विशेष मूल्यांकन के बाद लिखित सहमति दें।
भारत में भी उठने लगी 18 वर्ष तक नो सोशल मीडिया की मांग
डा. सिन्हा बताते हैं कि भारत में सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। यही वजह है कि बच्चों पर इसका प्रभाव सबसे तेजी से दिख रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में भी कम से कम 18 वर्ष से कम उम्र वालों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध या नियंत्रित व्यवस्था लागू होनी चाहिए।
क्योंकि देश के बड़े शहरों में डिप्रेशन के मामलों में 40–50 प्रतिश्त तक वृद्धि हो रही है। नशे की लत 15–20 वर्ष की उम्र में सबसे तेजी से फैल रही है। बच्चे पढ़ाई से दूरी बनाकर मोबाइल पर रोज 4–7 घंटे बिता रहे हैं। ये आंकड़े कहते हैं कि यह केवल एक टेक्नोलाजी की समस्या नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ी के अस्तित्व का संकट है।
इस तरह पीड़ित हो रहे युवा
- - युवा अपनी पढ़ाई, कैरियर और समय सोशल मीडिया के नाम पर नष्ट कर रहे हैं
- - 18 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में मस्तिष्क का विकास रुक रहा है
- - नींद की कमी से हार्मोनल परिवर्तन हो रहे हैं
- - लगातार विफलता से अवसाद और नशे की प्रवृत्ति बढ़ रही है
सोशल मीडिया बच्चों के दिमाग में एक झूठी दुनिया बना देता है। वे वास्तविकता से कट जाते हैं और सोचने लगते हैं कि जीवन आसान है और प्रसिद्धि पाना उससे भी आसान। जब यह सपना टूटता है, तो वे अवसाद में गिरते हैं और कई समस्याओं से घिरते चले जाते हैं। ऐसे में माता-पिता को बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान देना जरूरी है। साथ ही सरकार को चाहिए कि वे ऐसी नीति लाए जिसमें सही पैरामीटर से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन हो, जिसमें कोई गलत सूचना डालकर एकाउंट न खोल सके।
- डा. सिद्धार्थ सिन्हा, वरिष्ठ मनोचिकित्सक, रिनपास |