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Madhubani News : क्या बिना होमवर्क की रणनीति ने महागठबंधन की राह मुश्किल बना दी?

deltin33 Yesterday 20:37 views 438

  

इस खबर में प्रतीकात्मक तस्वीर लगाई गई है।  






ब्रज मोहन मिश्र, मधुबनी । एनडीए की प्रचंड जीत के पीछे मजबूत रणनीति, जदयू-चिराग पासवान का विधानसभा चुनाव में पहली बार साथ आना, दस हजार का कमाल, 125 यूनिट मुफ्त बिजली, मानयेद में बढ़ोतरी, सामाजिक पेंशन में वृद्धि आदि जो भी कारण रहा हो मगर महागठबंधन भी इस हार के लिये खुद कम जिम्मेदार नहीं है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

मधुबनी की दसों सीट की समीक्षा से समझा जा सकता है कि किस तरह महागठबंधन ने बिना पिछले नतीजों की समीक्षा किये उम्मीदवार उतारे। खासकर सीपीआई को झंझारपुर और हरलाखी देना महागठंबधन की सबसे बड़ी भूल में से एक है। झंझारपुर में सीपीआई के राम नारायण यादव कई चुनावों से लड़ते आ रहे थे।

वहां सीपीआई का अपना कैडर वोटर कितना है यह 2010 और 2015 के चुनाव नतीजों को देख कर समझा जा सकत है। राम नारायण यादव को 2010 में 3.83 प्रतिशत और 2015 में 2.87 प्रतिशत वोट मिले थे। 2020 में राजद और कांग्रेस से जुड़ने के बाद 29 प्रतिशत वोट मिले और नीतीश मिश्रा को 52 प्रतिशत।

नीतीश मिश्रा झंझारपुर में दो बार राजद से ही हारे थे। इन तथ्यात्मक नतीजों के बावजूद झंझारपुर सीट सीपीआई को दी गई और उम्मीदवार भी वहीं उतारा गया। नतीजा नीतीश मिश्रा करीब 56 प्रतिशत वोट लेकर सबसे बड़ी जीत हासिल करने में आसानी से कामयाब रहे। एनडीए झंझारपुर को लेकर किस कदर आश्वस्त था कि वहां एक भी बड़ी सभा नहीं हुई।
वहीं, हरलाखी में सीपीआई के रामनरेश पांडे लगातार हार रहे थे।उनकी हार के पीछे मो. शब्बीर का फैक्टर कई चुनावों से काम कर रहा था। उनके बाद भी उनका समाधान नहीं किया गया और राम नरेश पांडे ने अपने बेटे राकेज कुमार पांडे को सीपीआई के टिकट पर उतार दिया। मो. शब्बीर ने इस बार भी हार में भूंमिका निभाई। हालांकि इस बार का मार्जिन मो. शब्बीर को मिले वोट से ज्यादा है।
बात राजनगर की करें तो भाजपा ने कड़ा निर्णय लेते हुए निर्वतमान विधायक डा. रामप्रीत पासवान का टिकट काटकर युवा तुर्क सुजीत पासवान को दिया। उनके खिलाफ राजद को उम्मीदवार तय करने में इतना समय लगा जैसे प्रत्याशी ही न मिल रहा हो।

नामांकन से एक रात पहले प्रो. बिष्णुदेव मोची टिकट दिया। उसी दिन यह तय हो चुका था कि सुजीत पासवान बड़े अंतर से जीतेंगे और 42 हजार से ज्यादा वोट से जीते।
वीआइपी-राजद ने बाबूबरही के वोटरों को पहले ही कर दिया था कंफ्यूज

बाबूबरही में महागठबंधन में खींचतान नाम वापसी के दिन तक बनी रही। जदयू ने मीना कुमारी पर दोबारा भरोसा पहले ही जता दिया था। वहीं, राजद ने अरुण कुमार सिंह को अंतिम समय पर टिकट दिया और कुशवाहा कार्ड खेला। साथ ही यहां वीआइपी के टिकट पर बिंदू गुलाब यादव ने भी नामांकन करके वोटरों को कंफ्यूज कर दिया। महागठबंधन के कैडर में संशय की स्थिति बन गई। नाम वापसी के दिन पटना में प्रेसवार्ता से पहले बिंदु गुलाब यादव से नामांकन वापस कराया गया।
अंत अंत तक उम्मीदवार के नाम पर संशय से भी नुकसान

मधुबनी, बिस्फी, लौकहा सीट राजद के पास ही थी। इन सीटों पर भी नाम तय करने में काफी समय लगा।इसके पीछे पार्टी के अंदर तालमेल की कमी और एक दूसरे को कमजोर करने की होड़ लगी थी।

मधुबनी सीट से समीर महासेठ दो बार के विधायक रहे थे और राजद के लिये मजबूत मानी जाने वाली सीट थी। मगर महागठबंधन के अंतर कई ऐसे नेता थे, खासकर यादव समाज के जो टिकट के दावेदार थे और उन्होंने पूरी तरह से साथ नहीं दिया।

लौकहा में राजद ने भारत भूषण मंडल को फिर मौका दिया था मगर उस फैक्टर पर काम नहीं किया जिसके कारण उनके जीत हुई थी। जबकि एनडीए ने बड़े स्तर पर काम किया। अमित शाह ने खुद इसका रास्ता निकाला और असंतुष्ट जातीय समीकरण को अपने पक्ष में किया। वहीं, पूर्व मंत्री लक्ष्मेश्वर राय को जदयू से अपने पाले में लेकर आये राजद को उनका कोई लाभ नहीं मिला।
पुत्र ने लिया पिता की हार का बदला

एक मात्र बिस्फी की सीट जीत पाने में महागठबंधन के राजद उम्मीदवार आसिफ अहमद सफल रहे। उन्होंने हरिभभूषण ठाकुर बचौल से पिता की हार का बदला ले लिया।

वहां कांटे की लड़ाई हुई। राजद के शीर्ष नेता यहां भी अंतिम समय तक उम्मीदवार के नाम को फंसाये हुए थे। इसके पीछे राजद के ही कुछ बड़े नेता लगे हुए थे। कांटे की इस लड़ाई में ध्रुवीकरण सबसे बड़ा हथियार था। योगी आदित्यनाथ की सभा के बाद दोनों ओर ध्रुवीकरण तेज हुआ। जिस चक्रव्यू में फायरब्रांड बचौल फंस गये।
महागठबंधन ने दो सीटें कांग्रेस को दी थी बेनीपट्टी और फुलपरास।

बेनीपट्टी में शुरुआती लड़ाई कांटे की दिख रही थी। मगर कांग्रेस को भाजपा से ज्यादा नुकसान अपनों के भितरघात ने दिया। वहीं, फुलपरास में सुबोध मंडल शुरुआती बढ़त के बाद पिछड़ गये। अतिपिछड़ा वोट में अपेक्षा से कम सेंधमारी कर पाये और कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया।
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