दे दे प्यार दे 2 का रिव्यू। फोटो क्रेडिट- इंस्टाग्राम
फिल्म रिव्यू- दे दे प्यार दे 2
प्रमुख कलाकार- अजय देवगन, आर माधवन, रकुलप्रीत सिंह, गौतमी कपूर, जावेद जाफरी, मिजान जाफरी
निर्देशक- अंशुल शर्मा
अवधि- दो घंटा 27 मिनट
स्टार- ढाई
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। प्यार में उम्र के फासले मायने नहीं रखते हैं। साल 2019 में आई दे दे प्यार दे की कहानी भी ऐसे ही दो प्रेमियों के बीच थी। कहानी का नायक आशीष (अजय देवगन) लंदन में रहता है। भारत से लंदन पढ़ाई करने गई आयशा (रकुलप्रीत सिंह) अपने खर्चे निकालने के लिए बार में काम करती है। दोनों मिलते हैं और एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। आशीष उसे अपनी पत्नी मंजू (तब्बू) और दो बच्चे और परिवार से मिलवाने भारत आता है। उसकी बेटी की उम्र आयशा के आसपास है। आयशा और आशीष की प्रेम कहानी यहीं उलझती है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
दे दे प्यार दे से आगे बढ़ती है सीक्वल की कहानी
अब करीब छह साल बाद आई इसकी सीक्वल दे दे प्यार दे 2 की कहानी में आयशा इस बार आशीष को अपने परिवार से मिलवाने लंदन से चंडीगढ़ बुलाती है। आयशा की भाभी किट्टू (इशिता दत्ता) मां बनने वाली है। आयशा उसे आशीष के बारे में बता देती है। किट्टू के पेट में बात नहीं पचती है। वह आयशा के पिता राकेश (आर माधवन) और मां अंजू (गौतमी कपूर) को बता देती है।
खुद को आधुनिक और प्रगतिशील माता-पिता बताने वाले राकेश और अंजू अपनी लाडली बेटी से आशीष को बुलाने को कहते हैं। 27 साल की आयशा उन्हें यह नहीं बताती कि आशीष 52 साल का है। वह बस इतना बताती है कि आशीष उससे उम्र में बड़ा है। आशीष जब उनसे मिलने पहुंचता है तो राकेश और अंजू उसे देखकर चौंकते हैं। वह उनका हमउम्र होता है। राकेश इस रिश्ते के खिलाफ होता है। आयशा विद्रोह कर देती है और घर छोड़कर चली जाती है।
आशीष का दोस्त रौनक (जावेद जाफरी) भी वहां पहुंच जाता है। राकेश रिश्ते को तोड़ने की रणनीति बनाता है। वह अपने जिगरी दोस्त के बेटे आदित्य (मिजान जाफरी) को बुलाता है। बचपन के दोस्त रहे आयशा और आदित्य में नजदीकियां बढ़ती है। घटनाक्रम मोड़ लेते हैं। आदित्य के साथ शादी के लिए आयशा तैयार हो जाती है। शादी के पीछे भी रहस्य है। उसे यहां पर बताना उचित नहीं होगा।
सेकंड हाफ में निर्देशक की कोशिश नाकाम
फिल्म के निर्देशक अंशुल शर्मा, रोमांस, कॉमेडी और पारिवारिक ड्रामा का संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन एकरूपता बनाए रखने में नाकाम रहते हैं। लव रंजन और तरुण जैन की लिखी कहानी मध्यातंर से पहले काफी गुदगुदाती है। आशीष को देखकर राकेश और अंजू का बिदकना। उसकी उम्र जानने की बेकरारी से लेकर आशीष का अंजू को भी मम्मीजी, भाभीजी या बहन जी बुलाना जैसे कई दृश्य मजेदार हैं।
हालांकि फिल्म मध्यातंर के बाद लड़खड़ा जाती है। आयशा शादी के लिए क्यों राजी होती है इसका पूर्वानुमान आसानी से लग जाता है। वह प्रसंग रोचक नहीं बन पाया है। दोनों के प्यार को न्यायसंगत बताने का तर्क ठोस नहीं बन पाया है। फिल्म में आयशा बार-बार कहती है कि क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है... तो एक बार सोने से खो कैसे जाता है? क्या यह प्यार का आधार हो सकता है? यह सवाल मन में कई बार उठता है।
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कहानी के एग्जीक्यूशन में कमी
खैर दोनों की उम्र में करीब 25 साल के अंतराल के बावजूद उनकी सोच और विचारों और तौर तरीकों में कहीं भी टकराव नहीं दिखता है। बस दोनों शादी को लेकर उतावले दिखते हैं। आशीष शुरू में ठहराव ओर परिपक्वता दिखते हैं, लेकिन क्लाइमेक्स में उनके प्यार को लेकर गढ़ा गया ड्रामा दिलचस्प और विश्वसनीय नहीं बन पाया है। राकेश के साथ एक पुलिसकर्मी क्यों रहता है यह भी स्पष्ट नहीं है।
रकुलप्रीत-अजय देवगन की केमिस्ट्री
कलाकारों में अजय देवगन और रकुलप्रीत सिंह की केमिस्ट्री भी बहुत दमदार नहीं बन पाई है। हालांकि रकुल काफी खूबसूरत लगी हैं, लेकिन भावनात्मक दृश्यों में कमजोर लगी हैं। आशीष की भूमिका में अजय जमते हैं लेकिन कमजोर लेखन मध्यातंर के बाद उनके पात्र को कमजोर बनाता है। आर माधवन पिता की भूमिका में जंचते हैं। उनके हिस्से में कई दमदार सीन और संवाद आए हैं।
मिजान-जावेद का डांस यादगार
हालांकि यह उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं है। आधुनिक मां की भूमिका के साथ गौतमी कपूर न्याय करती हैं। जावेद जाफरी और उनके बेटे मिजान जाफरी का अभिनय उल्लेखनीय है। दोनों का एकसाथ डांस का दृश्य याद रह जाता है। भाभी की भूमिका में इशिता दत्ता के हिस्से में सीमित दृश्य हैं लेकिन वह हंसी के हल्के फुल्के पल लाती हैं। नानी की भूमिका में सुहानिसी मुले भी प्रभावशाली हैं।
सिनेमटोग्राफर सुधीर के चौधरी अपने कैमरे से चंडीगढ़ के हरे-भरे खेतों से लेकर लंदन तक की खूबसूरती दिखाते हैं। एडीटर चेतन एम सोलंकी का संपादन चुस्त है लेकिन क्लाइमेक्स कमजोर। अरमान मालिक का गाया आखिरी सलाम, श्रेया घोषाल का बाबुल खास प्रभाव नहीं छोड़ते। आखिर में हनी सिंह का गाया झूम बराबर गाना प्रमोशनल सॉन्ग है। अगर उम्र में फासले को कहानी में बेहतर तरीके से एक्सप्लोर किया जाता तो वाकई बेहतर सीक्वल बनती। वैसे अंत में कहानी को आगे ले जाने का संकेत भी है।
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