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बिहार विधानसभा चुनाव में हर दल को बगावत और भितरघात का डर, नजीर बन रहे बड़े नेता

deltin33 2025-10-11 23:43:00 views 510

  



दीनानाथ साहनी, पटना। राजनीति में नेताओं की अंतरात्मा कब जाग जाए, कोई नहीं जानता। खासकर, चुनावी मौसम में अंतरात्मा की आवाज पर नेताओं में बगावत से लेकर दल-बदल का हाई-वोल्टेज ड्रामा शुरू हो चुका है। यह सदाबहार प्रथा है और ये सूरते हाल सभी राजनीतिक पार्टियों का है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

ऐसे बदल-बदलूओं को अब पुराने दल में खोट-ही-खोट दिख रहा है तो नये घर में भविष्य की अपार संभावनाएं नजर आ रही हैं। ऐसे में अपनों की बगावत और फिर भितरघात से अब हर राजनीतिक दल डर रहा है। रोचक यह कि इस भितरघात का चेहरा-मोहरा नहीं बदला है।

बिहार में यह खेल अरसे से और बुलंदी पा रहा है। तमाम दलों के बड़े-बड़े सूरमा दूसरे दलों का दामन थाम या खेमेबंदी कर अपने ही पुराने सहयोगियों के खिलाफ ताल ठोक रहे हैं। जाहिर है कि चुनाव में भितरघात से बड़े-बड़े सूरमाओं की चमक दमक मंद पड़ेगी। यह डर हर पार्टी को भी है।
नजीर बन रहे बड़े नेताओं के दल-बदल

इस बार भी चुनाव में कई बड़े नेताओं के दल-बदल नजीर बनने लगा है। इनमें कई पूर्व सांसद, विधायक और मंत्री तक शामिल हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह ने पहले जदयू छोड़ा और अपनी पार्टी बनाई। इससे उनकी राजनीतिक कद नहीं बढ़ा तब जनसूराज पार्टी के सूत्रधार प्रशांत किशोर की शरण में चले गए।

दो बार भाजपा के सांसद रहे अजय निषाद 2024 के लोकसभा चुनाव में बेटिकट होने पर कांग्रेस का दामन थामा। इस बार विधानसभा चुनाव में पत्नी रमा निषाद को भाजपा से चुनाव लड़ाने के लिए फिर से भाजपा का झंडा उठा लिया।

जदयू से दो बार सांसद व एक बार विधायक रह चुके संतोष कुशवाहा ने राष्ट्रीय जनता दल का लालटेन थाम लिया और जदयू के नेतृत्व को अतिपिछड़ा विरोधी बताने में पीछे नहीं रहे। इसी तरह जदयू के पिछड़ा प्रकोष्ठ के पूर्व अध्यक्ष व मंत्री रह चुके लक्ष्मेश्वर राय ने लालू प्रसाद की पार्टी का लालटेन थामा।

वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री अशोक कुमार और रालोसपा के पूर्व सांसद अरुण कुमार जदयू में शामिल हुए। चुनाव से पूर्व राजनीतिक दलों के छोटे-बड़े नेताओं में दल-बदल, भितरघात एवं अंदरूनी खींचतान की जो तस्वीर उभर रही है। वह अंतिम पड़ाव तक आते-आते गलाकाट स्वरूप ग्रहण कर लेगी।

इस खतरे से कोई दल इंकार नहीं कर रहा है। भितरघात के इस चक्रव्यूह में राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टियां घिरती नजर आ रही है। आज की राजनीतिक परिस्थिति में कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उनके आंगन में असंतोष फल फूल नहीं रहा है, असंतुष्ट नेताओं की जमात नहीं बढ़ रही है।
बागियों को हवा देने में भी पीछे नहीं

राजनीति में एक विचित्र बात यह भी है कि जो असंतुष्ट या बागी दल छोड़ने की हिम्मत नहीं करते हैं, तो अपनी ही पार्टी के लिए भितरघात का डंक बन जाते हैँ। ऐसे बागियों को हवा देने वाले भी पीछे नहीं रहते, ताकि पार्टी में रहकर ही नुकसान पहुंचा सके। ऐसे बागी बेटिकट होने पर खेमेबंदी कर अपने ही उम्मीदवारों पर खुनस उतारते हैं, विरोधियों की पीठ थपथपाते हैं।

इस बार भी स्थिति यह है कि पुराने दल के सहयोगी अंदर ही अंदर बागी नेताओं को ही सपोर्ट करने में लगे हैं। यह भितरघात की विचित्र राजनीति का नया अनुभव है। जाहिर है कि इस सूरते हाल में बड़े-बड़े दिग्गजों को चुनावी अखाड़े में भितरघात से जूझना पड़ सकता है।

यह सीन हर दल में दिखेगा। चुनाव में टिकट कटने पर नेताओं द्वारा बगावत, दलबदल और फिर षड्यंत्र चुनाव में भितरघात का खेल खेलने से इंकार भी नहीं किया जा सकता। कई दिग्गजों को पैराशूट प्रत्याशियों का डर भी सता रहा है तो कई अपने नये-पुराने नेताओं की पैतरेबाजी से परेशान होते दिख रहे हैं।
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