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जब गांधी ने 125 वर्ष तक जीने की इच्छा त्याग दी ...

deltin55 2025-10-3 16:28:29 views 506



  • अनिल जैन  
पिछले एक-डेढ़ दशक से इस संगठन ने देश में सांप्रदायिक और जातीय विद्वेष का माहौल लगभग उसी तरह का बना दिया गया है, जैसा कि देश की आजादी के समय और उसके बाद के कुछ वर्षों तक बना हुआ था। उसी जहरीले माहौल से दुखी होकर राष्ट्रपिता ने अपनी मृत्यु की कामना करते हुए कहा था कि वे अब और जीना नहीं चाहते। उसी माहौल के चलते उनकी हत्या हुई थी।  
इस समय जब पूरी दुनिया महात्मा गांधी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही है और उनके विचारों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है, तब भारत में सत्ताधारी जमात से जुड़ा वर्ग गांधी को नकारने और उन्हें तरह-तरह से लांछित-अपमानित करने में लगा हुआ है। हालांकि इसी वर्ग का सबसे बड़ा संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कल 2 अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 156वीं जयंती के दिन अपना सौवां स्थापना दिवस मनाते हुए यह जताने का प्रयास भी करेगा कि गांधी उसके लिए भी उतने ही स्वीकार्य और पूज्य हैं जितने कि दूसरों के लिए।  




यह और बात है कि पिछले एक-डेढ़ दशक से इस संगठन ने देश में सांप्रदायिक और जातीय विद्वेष का माहौल लगभग उसी तरह का बना दिया गया है, जैसा कि देश की आजादी के समय और उसके बाद के कुछ वर्षों तक बना हुआ था। उसी जहरीले माहौल से दुखी होकर राष्ट्रपिता ने अपनी मृत्यु की कामना करते हुए कहा था कि वे अब और जीना नहीं चाहते। उसी माहौल के चलते उनकी हत्या हुई थी।  
दरअसल महात्मा गांधी 125 वर्ष जीना चाहते थे। उन्होंने यह इच्छा तब जताई थी जब देश को आजादी मिली थी, लेकिन उनकी हत्या के प्रयास जारी थे। गौरतलब है कि 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या से पहले भी पांच मर्तबा उनको मारने की कोशिश की जा चुकी थी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हत्या की पांच में से शुरू की चार कोशिशें तो महाराष्ट्र में ही हुई थीं, जो कि उन दिनों आरएसएस और हिंदू महासभा की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था।  




महात्मा गांधी की हत्या के संदर्भ में उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के समर्थक और हिंदुत्ववादी नेता अक्सर यह दलील देते रहते हंै कि गांधीजी ने भारत के बंटवारे को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया और उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाए, जिससे क्षुब्ध होकर गोडसे ने गांधी की हत्या की थी। हकीकत में यह दलील बिल्कुल बेबुनियाद और बकवास है। ऐसी दलील देने के पीछे उनका मकसद गोडसे को एक देशभक्त के रूप में पेश करना और गांधीजी की हत्या का औचित्य साबित करना होता है। सत्ता में बैठे या सत्ता से इतर भी जो हिंदूवादी लोग या संगठन मजबूरीवश गांधी की जय-जयकार करने का दिखावा करते हैं, वे भी गोडसे की निंदा कभी नहीं करते।  




दरअसल गांधीजी की हत्या के प्रयास लंदन में हुई गोलमेज कॉन्फ्रेंस में भाग लेकर उनके भारत लौटने के कु छ समय बाद 1934 से ही शुरू हो गए थे। उस समय तक किसी ने पाकिस्तान का नाम ही नहीं सुना था, उन लोगों ने भी नहीं जिन्होंने बाद में पाकिस्तान की कल्पना की और उसे हकीकत में बदला भी। पाकिस्तान बनाने की ख़ब्त तो मुस्लिम लीग के नेताओं के दिमाग पर 1936 में सवार हुई थी, जिससे बाद में मुहम्मद अली जिन्ना भी सहमत हो गए थे। पाकिस्तान बनाने का संकल्प 1940 में 22 से 24 मार्च तक लाहौर में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पारित किया गया था, जबकि इसके भी तीन साल पहले हिंदुत्ववादियों की ओर से औपचारिक तौर पर दो राष्ट्र का सिद्धांत पेश कर दिया गया था। गांधी जी की हत्या के अभियुक्त रहे और मास्टर माइंड माने जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर ने 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में साफ-साफ कहा था कि 'हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं, जो कभी साथ रह ही नहीं सकते।' हालांकि यह विचार वे 1921 में अंडमान की जेल से माफी मांगकर छूटने के बाद लिखी गई अपनी किताब 'हिंदुत्व' में पहले ही व्यक्त कर चुके थे।  




गांधीजी ने 125 वर्ष जीने की इच्छा अपनी हत्या के चौथे प्रयास के बाद फिर दोहराई थी। उनकी हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था, जब वे विशेष ट्रेन से तत्कालीन बंबई (आज की मुंबई) से तब पूना कहे जाने वाले वर्तमान के पुणे की ओर जा रहे थे। उनकी उस यात्रा के दौरान नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच रेल पटरी पर बड़ा पत्थर रख दिया गया था, लेकिन उस रात ट्रेन के ड्राइवर की सूझ-बूझ से गांधी बच गए थे।  
दूसरे दिन, 30 जून को पूना में प्रार्थना सभा के दौरान गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का जिक्र करते हुए कहा,'परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरश: मृत्यु के मुंह से सकुशल वापस आया हूं। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है। फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आती।'  

इस प्रार्थना सभा में भी गांधीजी ने 125 वर्ष जीने की अपनी इच्छा दोहराई थी, जिस पर नाथूराम गोडसे ने 'अग्रणी' पत्रिका में लिखा था- 'पर जीने कौन देगा?' यानि कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा? महात्मा गांधी की हत्या से डेढ़ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य भी साबित करता है कि हिंदुत्ववादी जमात गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से ही प्रयासरत थी।  
बहरहाल गांधी की 125 वर्ष तक जीने की इच्छा लंबे समय जीवित नहीं रह सकी। देश की आजादी और भारत के बंटवारे के बाद देश के कई हिस्सों में हो रहे सांप्रदायिक दंगों से गांधीजी बेहद दुखी और हताश थे। वे 9 सितम्बर, 1947 को अपना नोआखाली, बिहार और कलकत्ता मिशन पूरा करके दिल्ली लौटे थे और अगले ही दिन से दिल्ली के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का पैदल दौरा शुरू कर दिया। वे किंग्सवे कैम्प, कनॉट प्लेस, लेडी हार्डिंग कॉलेज, जामा मस्जिद, शाहदरा और पटपड़गंज सहित हर उस जगह गए जहां शरणार्थी कैम्पों में लोग रह रहे थे। वे धैर्यपूर्वक लोगों की बात सुनते और बातचीत के दौरान उनका गुस्सा भी झेलते।  

वे अपनी नियमित प्रार्थना सभा में गीता के श्लोकों के साथ ही बाइबिल और कुरान की आयतें भी नियमित रूप से पढ़वाते थे। एक दिन शाम को प्रार्थना सभा में अचानक किसी ने गुस्से भरी आवाज में जोर से नारा लगाया- 'गांधी मुर्दाबाद'! वहां मौजूद कुछ अन्य लोगों ने भी इस नारे को दोहराया। गांधीजी अवाक रह गए। जो काम 20 साल में दक्षिण अफ्रीका के गोरे और 40 साल में अंग्रेज नहीं कर पाए वह काम उन लोगों ने कर दिखाया, जिनकी मुक्ति के लिए गांधीजी ने अपना जीवन होम कर दिया था।  

आजादी के बाद दिल्ली में बड़े पैमाने पर हो रही हिंसा से गांधीजी को आश्चर्य हो रहा था, पर वे भली-भांति समझ रहे थे कि इन दंगाइयों को कौन शह दे रहा है और क्यों दे रहा है। उन्हें अहसास हो गया था कि आजाद भारत किस दिशा में जाने वाला है। देश को हिंसा के रास्ते पर जाते हुए देख वे अपने उन सिद्धांतों से और मजबूती से चिपक गए जिनसे उन्हें दक्षिण अफ्रीका में शक्ति मिली थी। सत्य, अहिंसा, प्रेम और समस्त मानवता के प्रति उनकी आस्था में कोई बदलाव नहीं आया।  

दिल्ली में हो रही हिंसा को रोकने के लिए गांधी की अपील का लोगों पर कोई असर नहीं हुआ था। दरअसल जो लोग हिंसा में लिप्त थे और जो उन्हें उकसा रहे थे, वे इस मानसिकता के थे ही नहीं जो गांधी के संदेश का मर्म समझ सकते। फिर भी गांधी को अपने संदेश की सार्थकता पर पूरा विश्वास था।  
इस बीच 2 अक्टूबर, 1947 आया। यह आजाद भारत में महात्मा गांधी का पहला जन्मदिन था। जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने और गुलदस्ते भेंट करने का सिलसिला शुरू हो गया था, लेकिन शाम को प्रार्थना सभा में उदास मन से गांधीजी ने पूछा, 'आज मुझे बधाइयां क्यों दी जा रही हैं? क्या इससे बेहतर यह नहीं होता कि मुझे शोक संदेश भेजा जाता?'  

उन्होंने कहा, 'आज मैंने 125 वर्ष जीने की इच्छा छोड़ दी और अब मैं अधिक नहीं जीना चाहता।'  उन्होंने प्रार्थना सभा में आए लोगों से कहा, 'आप सभी आज की प्रार्थना सभा में ईश्वर से मेरे मरने की दुआ कीजिए! ईश्वर की इच्छा या फैसले में किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है। मैंने एक धृष्टता करते हुए 125 वर्ष जीने की बात कही थी, परन्तु आज हालात बिल्कुल बदल गए हैं, इसलिए मैं विनम्रतापूर्वक 125 वर्ष तक जीने की इच्छा का त्याग करता हूं।'  

उनकी इस घोषणा के कुछ ही समय बाद 20 जनवरी 1948 को दिल्ली में ही उनकी हत्या का प्रयास किया गया। उस दिन नाथूराम गोडसे ने नई दिल्ली के बिड़ला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना-सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था और नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था। महज दस दिन बाद ही 30 जनवरी को वह अपना पैशाचिक इरादा पूरा करने में कामयाब हो गया।  
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)






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