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1983 की असम नरसंहार पर तिवारी आयोग ने जारी की रिपोर्ट, आसू-एजीएसपी को ठहराया जिम्मेदार

LHC0088 2025-11-26 10:36:41 views 102

  

1983 की असम नरसंहार पर तिवारी आयोग नेआसू-एजीएसपी को ठहराया जिम्मेदार (सांकेतिक तस्वीर)



पीटीआई, गुवाहाटी। असम की 1983 की हिंसा पर त्रिभुवन प्रसाद तिवारी आयोग की रिपोर्ट खून-खराबे के चार दशक से ज्यादा समय बाद मंगलवार को राज्य विधानसभा में वितरित की गई। इसमें नेल्ली हत्याकांड भी शामिल है, जिसमें 2,000 से अधिक लोगों की जान गई थी। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
हिंसा सांप्रदायिक नहीं थी- रिपोर्ट

रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसा सांप्रदायिक नहीं थी, लेकिन प्रवासियों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ने का असम के लोगों का डर काल्पनिक नहीं था। आयोग ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और असम गण संग्राम परिषद (एजीएसपी) को आंदोलन शुरू करने और उसके परिणामों के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया।

रिपोर्ट में कहा, तोड़फोड़ और बंद की घटनाएं सुनियोजित थीं। उन्हें बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था जो बाद में नियंत्रण से बाहर हो गई थीं और हिंसा के कारण जान-माल का बहुत नुकसान हुआ।
1983 के पहले चार महीनों में हुई घटनाओं की जांच की थी

सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी त्रिभुवन प्रसाद तिवारी की अगुआई वाले आयोग ने 1983 के पहले चार महीनों में हुई घटनाओं की जांच की थी। इस दौरान फरवरी में हुए चुनाव में लगभग एक वर्ष के राष्ट्रपति शासन के बाद कांग्रेस सत्ता में आई थी।
8,000 से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गईं

उस दौरान, 8,000 से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गईं, जिससे 2,26,951 लोग बेघर हो गए और 2,48,292 लोग राहत शिविरों में रहे। असम के सबसे खूनी दौर में से एक पर आयोग की रिपोर्ट का विधानसभा में पेश होना इसलिए अहम है क्योंकि राज्य में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं।

1987 में जब असम गण परिषद (एजीपी) की सरकार ने इसे शुरू में पेश किया था, तब इसकी ज्यादा प्रतियां मौजूद नहीं थीं और इसलिए उस समय विधायकों को नहीं दी गई थी।
एजीपी, एजीएसपी की राजनीतिक शाखा थी

एजीपी, एजीएसपी की राजनीतिक शाखा थी, जिसने अगस्त, 1985 में आसू और केंद्र सरकार के साथ त्रिपक्षीय असम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद राज्य में घुसपैठ के विरुद्ध आंदोलन खत्म हो गया था।
तिवारी आयोग ने रिपोर्ट में कही ये बात

तिवारी आयोग का गठन 14 जुलाई, 1983 को किया गया था, ताकि उसी वर्ष जनवरी से अप्रैल तक अशांति के हालात की जांच की जा सके। आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट मई, 1984 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार को सौंपी थी। तिवारी आयोग ने रिपोर्ट में कहा, \“\“किछार और नार्थ कछार हिल्स को छोड़कर राज्य के सभी जिले प्रभावित हुए।\“\“

अपने \“नतीजों और सुझावों\“ में आयोग ने कहा कि चुनाव कराने के फैसले को हिंसा के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उसने कहा कि संसदीय प्रक्रिया में रुकावट नहीं आनी चाहिए और न ही किसी सरकार को धमकियों या हिंसा के आगे झुकना चाहिए।
हिंसा को लोगों का समर्थन था- रिपोर्ट

रिपोर्ट में सुबूतों के आधार पर कहा गया है कि हिंसा को लोगों का समर्थन था। हालांकि आंदोलन का दायरा और तीव्रता शुरुआती आकलन से ज्यादा थी, लेकिन सरकारी तंत्र ने अच्छा काम किया।

आयोग ने रिपोर्ट में कहा कि प्रवासियों का जमीन पर कब्जा सबसे बड़ी परेशानी में से एक है। उसने इसके लिए कश्मीर जैसी सुरक्षा की पैरवी की थी, जहां कोई बाहरी व्यक्ति संपत्ति खरीद और बेच नहीं सकता था।

गैर-असमिया लोगों को अचल संपत्ति के ट्रांसफर पर उचित रोक लगाने की सलाह देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि इस मकसद के लिए \“असमिया\“ को परिभाषित करते समय नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजंस का रेफरेंस या राज्य में रहने का कम से कम समय जैसी दूसरी शर्तें हो सकती हैं।
गैर-सरकारी मेहता आयोग की रिपोर्ट भी पेश

मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इसी हिंसा की जांच के लिए गठित गैर-सरकारी जस्टिस टीयू मेहता न्यायिक आयोग की रिपोर्ट भी विधानसभा में पेश की। इस आयोग का गठन असम राज्य मुक्ति संग्राम सेनानी संघ नामक संगठन ने किया था। मेहता आयोग का गठन संभवत: सरकार की ओर से गठित तिवारी आयोग का मुकाबला करने के लिए किया गया था।

यह सवाल उठाते हुए कि ऐसी स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है, मेहता आयोग ने तत्कालीन केंद्र सरकार, चुनाव आयोग, किसी भी तरह सत्ता पर कब्जा करने की चाहत रखने वाले नेताओं, असम के राज्यपाल और राज्य के सचिवालय में उनके सलाहकार अफसरों पर दोष मढ़ा था।
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