सलिल चौधरी के पॉपुलर गाने (फोटो- इंस्टाग्राम)
जागरण न्यूज नेटवर्क, मुंबई। संगीत की दुनिया में सलिल चौधरी (Salil Chaudhary) वह नाम हैं, जिनके सुर सिर्फ सुनाई नहीं देते, बल्कि महसूस होते हैं। उन्होंने लोकधुनों, पश्चिमी सिंफनी और मानवीय करुणा को इस तरह जोड़ा कि उनका संगीत सीमाओं से परे जाकर मानवीय भाषा बन गया। सलिल दा के जन्मशताब्दी वर्ष (19 नवंबर) पर संदीप भूतोड़िया का आलेख... विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
भारतीय फिल्म संगीत के विराट और रंग-बिरंगे आकाश में सलिल चौधरी (1925–1995) उन दुर्लभ सितारों में से हैं, जिनकी चमक किसी एक श्रेणी में समेटी नहीं जा सकती। वे संगीतकार, गीतकार, पटकथा लेखक और विचारधारा से जुड़े क्रांतिकारी रहे, जिनकी प्रतिभा ने सीमाओं को तोड़ दिया। उनके सुरों में बंगाल की मिट्टी की गंध है और पश्चिमी सिंफनियों की संरचना है जो आम आदमी की धड़कनें हैं। आज भी उनके गीत-‘सुहाना सफर और ये मौसम हसीं’(‘मधुमती’), ‘तस्वीर तेरी दिल में’(‘माया’), ‘इतना न मुझ से तू प्यार बढ़ा’(‘छाया’) आदि हवा में गूंजते हैं।
अकाल में उभरा उस्ताद
कोलकाता के पास गाजीपुर में जन्में सलिल का बचपन बंगाल के चाय बगाने में बीता। पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के बड़े प्रशंसक उनके चिकित्साधिकारी पिता डा. ज्ञानेंद्र चौधरी क्लैरिनेट बजाते, नाटक रचते और बागान मजदूरों के साथ मंचन करते। छोटे सलिल बीथोवेन, मोत्जार्ट और बाक की धुनें सुनते-सुनते बड़े हुए, साथ ही असम और बंगाल की लोकधुनें भी उनके भीतर गहरे उतरती रहीं। आठ वर्ष की आयु में ही वे बांसुरी बजाने लगे और जल्द ही पियानो सहित कई वाद्ययंत्र सीख लिए। यूरोपीय सिंफोनिक संरचना और देसी लोक-लय का यही
अनोखा संगम बाद में उनके संगीत की पहचान बना, लेकिन यह सुनहरी दुनिया 1943 के बंगाल में पड़े भीषण अकालने चकनाचूर कर दी।
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बदल गई सलिल के गानों की जीवन दिशा
भुखमरी और सामाजिक अन्याय को नजदीक से देखने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। कोलकाता में उन्होंने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़कर कला को राजनीतिक चेतना जगाने का माध्यम बनाया। सलिल के शुरुआती गीत ‘रनरछुटेछे’, ‘कोनो एक गायेरबोधू’, ‘पालकी चले’ मजदूरों, किसानों और नाविकों की आवाज बनकर उभरे।
इप्टा से मुंबई तक का सफर
फिल्मकार बिमल राय एक गरीब किसान की कहानी ‘रिक्शावाला’ से प्रभावित हुए और उसे ‘दो बीघा जमीन’ में रूपांतरित किया। इस फिल्म के लिए उन्होंने सलिल चौधरी को कहानीकार और संगीतकार के रूप में मुंबई बुलाया। ‘दो बीघा जमीन’ भारतीय यथार्थवाद की दिशा बदलने वाली ऐतिहासिक फिल्म थी और इसने सलिल चौधरी को नए और अनूठे संगीतकार के रूप में स्थापित किया। फिल्म का गीत ‘धरती कहे पुकार के’ रूसी रेड आर्मी मार्च की धुन से प्रेरित था, जिसने किसान के संघर्ष को एक शक्तिशाली आवाज दी। यह साझेदारी, जो सामाजिक यथार्थ और संगीत कविता का अनूठा मिश्रण थी, ‘परख’ में और गहरी हुई, जो सलिल चौधरी की ही राजनीतिक व्यंग्य कथा पर आधारित थी।
‘परख’ का गीत ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ वर्षा को संगीत और प्रतीक दोनों के रूप में पेश करता है। इसके बाद, ‘काबुली वाला’ में मन्नाडे द्वारा गाया गीत ‘ए मेरे प्यारे वतन’ ने बिछोह की पीड़ा को अमर कर दिया।
काउंटर मेलोडी में थे पारंगत
सलिल चौधरी लोक धुनों को जटिल आर्केस्ट्रा के साथ इस तरह पिरोते कि वह सुसंस्कृत भी लगे और सीधे हृदय से भी बोले। उनकी काउंटर- मेलोडी की कला अद्वितीय थी, जिससे उनके गीत परतदार और गहरे बने। ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ (आनंद) में वायलिन के उतार-चढ़ाव जीवन की पहेली को दर्शाते हैं। ‘कई बार यूं भी देखा है’ (रजनीगंधा ) में बांसुरी मुकेश की आवाज के आस-पास हिचकते भाव की तरह चलती है।
हर वाद्य यंत्र बजा लेते थे सलिल
जहां कई समकालीन या तो शास्त्रीयता पर टिके थे या लोकप्रियता पर, वहां सलिल ने दोनों के बीच पुल बनाया। अगर कोई सचमुच अखिल भारतीय संगीतकार था, तो वह सलिल चौधरी थे। उन्होंने हिंदी, बांग्ला, असमी, मराठी, मलयालम, तमिल, तेलुगु सहित दर्जनों भाषाओं में संगीत दिया और अक्सर एक ही धुन को विभिन्न भाषाओं की लय और उच्चारण के अनुसार ढाला। ‘रातों के साए घने’ (1972) की धुन बाद में बांग्ला और मलयालम में भी जीवंत हुई। मलयालम सिनेमा में उनकी शुरुआत ‘चेम्मीन’ (1965) से हुई, जो राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हुई और यसुदास को राष्ट्रीय पहचान मिली। ‘अझियाथा कोलंगल’ (तमिल), ‘कोकिला’ (कन्नड़), ‘अपराजेय’ (असमीया) हर भाषा में उनका संगीत भावनाओं और आर्केस्ट्रेशन की ऐसी उंचाई पर था कि सीमाएं अप्रासंगिक हो गईं। राज कपूर ने कहा था- ‘सलिल दा लगभग हर वाद्ययंत्र बजा सकते हैं, तबला से सरोद, पियानो से पिकोलो तक।’
बैकग्राउंड म्यूजिक के उस्ताद
पृष्ठभूमि संगीत में भी सलिल अग्रणी थे। ‘कानून’ जैसे गीतहीन कोर्ट रूम थ्रिलर में उन्होंने मौन, तार-वाद्य और सूक्ष्म धुनों से रोमांच रचा। ‘इत्तेफाक’ में संगीत मनोवैज्ञानिक तनाव बन गया। ‘देवदास’ के क्लाइमैक्ससीन का संगीत उन्होंने बिना किसी क्रेडिट के तैयार किया, जो उनके विनम्र स्वभाव का प्रमाण है। यह सहयोग ‘रजनीगंधा’ और ‘छोटी सी बात’ में खिल उठा, जहां ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’, ‘ना जाने क्यों होता है’, ‘जानेमन, जानेमन’ तक जारी रहा।
क्रांति का सौंदर्यबोध
सलिल चौधरी के संगीत में बेचैन आदर्शवाद था। उनका संगीत सिर्फ आनंद देने के लिए नहीं था, वह सोचने, महसूस करने, करुणा जगाने के लिए भी था। वे धुन को सत्य को रोशन करने का माध्यम मानते थे। अंतिम वर्षों तक वे फिल्मों, टीवी और मंचीय प्रस्तुतियों के लिए रचना करते रहे। वे ‘संगीतकारों के संगीतकार’ थे। उन्होंने कहा था-‘जब शुरू किया था, तब संगीत मुझे एक ऊंचा टावर लगता था, जिस पर मुझे
चढ़ना था। आज भी लगता है कि वह टावर उतना ही ऊंचा है।’ जन्म के 100 वर्ष बाद और देहांत के तीन दशक बीत जाने के बावजूद सलिल चौधरी का संगीत समय की सीमाओं के परे है।
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