मनोज राजन व विनोद अनुपम के साथ अनंत विजय
महेन्द्र पाण्डेय, जागरण, लखनऊ : सिनेमा में सिर्फ कहानी नहीं होती। इसमें कहानी ढूंढ़ेंगे तो थोड़ी मुश्किल होगी। आप रवींद्र नाथ टैगोर और बंकिम चंद्र चटर्जी को पढ़िए तो स्वयं से उतना ही जुड़ा पाएंगे, जितना कि फिल्मों से जुड़े होते हैं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
सिनेमा से दर्शकों का यह जुड़ाव फिल्मकारों के कारण होता है। फिल्मकारों की पुरानी पीढ़ी हमारे बीच से आई थी। उन्होंने गांव-समाज, देश देखा था। आज के जो फिल्मकार हैं, उन्हें पता नहीं कि पंजाब और बिहार के गांव कैसे हैं। सब उनकी कल्पना मात्र है। फिल्मी दुनिया की चुनौतियों पर विमर्श हुआ तो आज के फिल्मकारों की जानकारी पर प्रश्न खड़े हुए। निष्कर्ष यह रहा कि अब जज करने वाले कोई और हैं और फैसला लेने वाले कोई और। जब तक निर्णय लेने वाला जानकार नहीं होगा सिनेमा में चुनौतियां आती रहेंगी।
संवादी के छठे सत्र \“\“फिल्मी दुनिया की चुनौतियां\“\“ में शुक्रवार काे फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम और उपन्यासकार मनोज राजन मंचासीन हुए। संचालक दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर अनंत विजय ने सिनेमा के रंगों पर प्रश्न किया तो विनोद अनुपम ने कहा, \“फिल्मों में थिएटर का अपना महत्व है, लेकिन आप मोबाइल फोन पर उसे कैसे महसूस कर सकते हैं? सिनेमा हाल की एक सामूहिकता है। हम नहीं जानते कि हमारे बगल में कौन बैठा है। फिर भी हम किसी से असहज नहीं होते। आज मोबाइल फोन ने निजता ला दी, लेकिन अब शर्म जा रही है। सिनेमा की हया खत्म हो रही है। अब मां-बेटा साथ फिल्म देखने नहीं जाते। मां अलग फिल्म देख रही है और बेटा अलग।\“ अनुपम ने फिल्म बार्डर का किस्सा सुनाते हुए कहा, \“पापकार्न सिनेमा का दुश्मन है। सिनेमा मजे की चीज नहीं है।\“
अनुपम की बात को मनोज राजन ने आगे बढ़ाया। कहा, \“पहले फिल्मों में ठाकुर के जूते की कील जिस तरह डराती थी, अब वह बात सिनेमा में नहीं है। फिल्मों में विमल राय वाली कहानी नहीं है। इस देश में मनमोहन देसाई जैसे लोग भी आए, जिन्होंने अलग तरह का सिनेमा दिया।\“ मनोज ने \“अनहोनी को होनी कर दे, होनी को अनहोनी...\“ सुना कर समझाया कि अमर अकबर एंथोनी फिल्म में नायकों ने खलनायक के सामने अपना नाम बता दिया फिर भी पहचाने नहीं गए। सिनेमा अब अकेले का बन रहा है। यदि भीड़ अपने आप जा रही है तो गदर-2 जैसी फिल्म के लिए। बाकी के लिए कार्पोरेट बुकिंग हो रही है। एक समय वह भी था, जब सिनेमा घरों में \“25वां हफ्ता\“\“ प्रदर्शित किया जाता था। शील्ड रखी जाती थी, लेकिन अब वो वक्त नहीं। आज के फिल्मकारों को युवाओं की मांग को समझना होगा।\“
अनंत विजय ने प्रश्न किया- हर चीज के लिए युवा ही क्यों जिम्मेदार हैं? मनोज राजन ने फिल्म मकसद की चर्चा करते हुए कहा, \“उसमें राजेश खन्ना के डायलाग में भी अश्लीलता थी। बालीवुड में चार-पांच देवदास बनी। आज की पीढ़ी देवदास के रूप में न जाने क्या-क्या देख रही है। केएन सहगल के जमाने से एक जैसी स्टोरी चल रही है। हमारी पीढ़ी हमसे भी आगे है। वो सब समझ रही है। नैतिकता अब भी बची है, ऐसा नहीं है कि फिल्मों में गंदगी, गाली और \“सेक्स\“ ही दिखाया जा रहा है।\“ मनोज ने \“उतना ही उपकार समझिए कोई...\“ और \“दूर रहकर न करो बात करीब आ जाओ...\“सुनाकर चर्चा को और आनंददायी बनाया।
मुंबई में पले-बढ़े फिल्मकारों को नहीं पता चावल उपजता है या धान
अनंत ने अगला प्रश्न किया- परिवर्जन समाज पर क्यों थोपा जाता है? अनुपम ने कहा, \“आज जो लोग फिल्में बना रहे हैं, वे मुंबई में पले-बढ़े हैं। उन्होंने वहीं का समाज देखा। उन्हें नहीं पता खेती कैसे की जाती है। चावल उपजता है या धान। उनका काम चल जाता है कार्पोरेट बुकिंग से। सारी समस्या हिंदी सिनेमा के फिल्मकारों की है, बाकी जगहों पर समस्या नहीं है।
हिंदी सिनेमा को अपनी दुनिया के बारे में पता ही नहीं है। यहां तक की तमिल फिल्मकारों को भी पता है कि उनके दर्शक क्या चाहते हैं। वे अपने समाज को बखूबी जानते हैं। हिंदी सिनेमा में लापता लेडीज जैसी फिल्म भी बनी और देखी गई। यह हमारे बीच की कहानी थी। इसे लोग फिल्म में ले आए और फिल्म खूब चली, लेकिन यह वक्त हिंदी सिनेमा के फिल्मकारों के सोचने का है। |