ढोल-दमाऊ, संस्कृति और परंपरा का संगम। जागरण
शैलेंद्र गोदियाल, देहरादून। ढोल-दमाऊ की गूंज उत्तराखंड की संस्कृति में प्रतिध्वनित होती है। इस आदिवाद्य में न केवल पहाड़ का लोकजीवन थिरकता है, बल्कि जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार, देव-आह्वान से लेकर युद्ध-घोष तक की परंपरा और आनंद, आस्था, आमंत्रण, वीरगाथा, विराह-वेदना व पर्व-त्योहारों का समूचा संसार समाया हुआ है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
पीढ़ियों से पर्वतीय समाज की सांस्कृतिक चेतना के रूप में ढोल-दमाऊ का नाद सामूहिक भावना, आध्यात्मिक विरासत और प्राकृतिक उत्सवों का अभिन्न स्वर बनकर आज भी लोक में उल्लास घोल रहा है। संस्कृत और गढ़वाली में रचित प्राचीन ग्रंथ \“ढोल सागर\“ में ढोल के 390 से अधिक शबद-तालों का वर्णन मिलता है।
सामाजिक जीवन की डोर
नामकरण, चूड़ाक्रम, चैती, रोपाई, थौले-मेले और सामुदायिक उत्सवों तक ढोल-दमाऊ की थाप पहाड़ का जीवंत स्पंदन है। विवाह में तो मंगल स्नान से लेकर धारा-नौला पूजन तक की रौनक ढोल-दमाऊ के साज से ही है। मंडाण्ड, रांसो-तांदी, छोलिया, हारुल, छोंपती, थड़िया-चौंफला, झैता जैसे लोक नृत्यों की आत्मा भी इसी वाद्ययंत्र में बसती है, जिसकी धमक तन-मन को थिरकने पर मजबूर कर देती है।
ताल की विशेषता
टिहरी के कंडियाल गांव निवासी गोकुल दास बताते हैं कि उनके दादा कमलदास जब बुडकोट गांव में मंडाण बजाने गए तो पंखी घर पर भूल गए। ठंड बढ़ने पर उन्होंने ढोल की थाप से संकेत भेजा, जिसे घर पर दादी ने समझ लिया और परिवार ने पंखी तुरंत बुडकोट गांव पहुंचा दी।
ऐसे बना ढोल लोकवाद्य
पौराणिक कथा के अनुसार ढोल धरती और दमाऊ स्वर्गलोक का वाद्य है। एक बार पृथ्वीवासियों ने देवताओं से दमाऊ मंगाकर ढोल के साथ उसकी जुगलबंदी की, जिसकी नौखंडी गूंज स्वर्ग तक पहुंची। किंतु, बाद में मनुष्य ने दमाऊ को धरती पर ही रखने के लिए उसे अशुद्ध बताकर चाल चली. लिहाजा देवताओं ने दमाऊ भी मनुष्य को सौंप दिया।
घर की समृद्धि और ज्ञान का प्रतीक
ढोल के शोधार्थी एवं रंगकर्मी जयप्रकाश राणा बताते हैं कि पहाड़ में लोक संस्कृति की पहचान ढोल देवत्व का प्रतीक है। पर्व-स्नान पर ढोल का गंगा स्नान और विधिपूर्वक पूजन होता है। हर देवी-देवता का अलग-अलग बाजा (ताल-शैली) और ढोल होता है। सेम नागराजा देवता का ढोल 350 वर्ष पुराना और इसी तरह अन्य देवताओं के भी ऐतिहासिक ढोल हैं। शुभकार्य में ढोल और ढोली का सम्मानपूर्वक स्वागत होता है। ढोल घर की समृद्धि और ज्ञान का प्रतीक है तथा ढोली के लिए ढोल-सागर का ज्ञान अनिवार्य है। ढोल दमाऊ पहाड़ में जनांदोलनों का नेतृत्वकर्ता भी रहा है।
ऐसा विलक्षण वाद्य है ढोल
ढोल का आधार भाग पीतल, तांबा या चांदी से बना होता है। 14 से 16 इंच व्यास वाले इस दोमुखी ढोल में एक सूर्य मुख लाकुड़ (लकड़ी) से और दूसरा चंद्र मुख हथेली से बजाया जाता है। दोनों मुखौं पर बकरी की खाल (पूड़) चढ़ाई जाती है, जिन्हें 12 मुख्य डोरियों और 11 सहायक डोरियों से स्वरसाधित किया जाता है।
सात से 20 किलो भार वाले ढोल के साथ अनिवार्य रूप से दमाऊ भी बजता है, जो पीतल या कांसे से निर्मित एकमुखी वाद्य है और दो लाकुड़ों से बजाया जाता है। ढोली, औजी या बाजगी कहलाने वाले वादक इन वाद्यो के माध्यम से देवजात, जागर, पंवाडे, पंडवार्त, रम्माण और देव यात्राओं में देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं। मान्यता है कि इनकी थाप देवताओं को आमंत्रित करने का माध्यम है।
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ढोल की प्रचलित तालें
- बढै: बढे हर पर्व-त्योहार पर बजाई जाती है, इसे बधाई ताल कहते हैं।
- घुयाल: देवोपासना की इस ताल में देवताओं का आह्वान किया जाता है। सभी देवताओं की अलग-अलग ताल बजाई जाती है।
- शबद: ढोल सागर के अनुसार शब्द (ढोल दमाऊ की संयुक्त ध्वनि) ताल, नाद, अनुभूति और ज्ञान से पैदा हुए। इसमें उठौंण, बिसौंग और कांसू ताल होते हैं।
- जोड़: इस कलात्मक ताल में लय के चलन का एक टुकड़ा बजाकर पलभर के लिए अवरुद्ध किया जाता है। ढोली पुनः टुकड़ों का समायोजन कर बजाते हैं।
- रहमानी: पहाड़ी मार्ग पर बारात के चलते समय की ताल है। इसमें सैंद्वार (समतल रास्ता), उकाळ (चढ़ाई पर), उंदार (उतराई पर), गढ़छाला, (नदी-गदेरे के किनारे रास्ते में), मच्छीफाट (पुल पार करते हुए), धार ताल (चोटी में पहुंचने पर) प्रमुख ताल हैं।
- नौबत: रात के द्वितीय व अंतिम प्रहर, मंदिरों में प्रतिदिन व शुभ अवसरों पर। कुछ मंदिरों में 18 ताल की नौबत पूरी रात बजाई जाती है। इसे नौखंड की नौबत भी कहते हैं।
- अंतिम ताल: इसके बजने से पता चल जाता है कि किसी गांव-घर में अनिष्ट हुआ है। जब तक शव घर में रखा रहता है, तब तक हर प्रहर यही ताल बजाई जाती है। फिर शव यात्रा में घाट तक बजाते हैं।
- चारितालिम: शिव मंदिर में शिव तांडव व पांडवों की ताल भी कहते हैं।
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