दशहरा उत्सव : ग्रामीण जेन-जी ने बखूबी संजोए रखी है बुजुर्गों की स्थापित थाती
सुभाष डागर, बल्लभगढ़। साइबर तकनीक के दौर में भी ग्रामीण क्षेत्र के युवा अपने बुजुर्गों द्वारा स्थापित परंपरा को बखूबी संजो रहे हैं। ग्रामीण अंचल में दशहरा मनाने की परंपरा कुछ अलग होती है। अब युवा भी इस प्राचीन परंपरा को बखूबी सहेज रहे है। यह परंपरा दस दिशाओं में गोबर की थपकली बनाकर और उनके ऊपर अनाज भरकर रखने की है। दशहरा जब आता है तब खरीफ की फसल पक कर घर में आती है। उसी दौरान रबी की बोआई शुरू हो जाती है। अनाज के भंडार भरे रहें और पशुधन भी पूरी तरह से स्वस्थ रहे इसीलिए यह संस्कृति सदियों से चली आ रही है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
झांझी का आगमन और विदाई
दशहरा के उत्सव की तैयारी नवरात्र के पहले से ही शुरू हो जाती है। हर घर में झांझी आती है और इसकी पूरे नौ दिन पूजा होती है। दशहरा वाला दिन झांझी की विदाई का होता है। इस दिन महिला समूह में एकत्रित होकर अपनी झांझी को तालाब में विसर्जित करती हैं। दशहरा की पूजा ग्रामीण अपनी परंपरा के अनुसार करती हैं। वैदिक संस्कृति के अनुसार पहले जीवन को चलाने के लिए दो ही साधन होते थे पहला खेती करना और दूसरा पशुधन। यह दोनों समृद्धि का प्रतीक थे।
दसों दिशाओं में रखते हैं थपकली
बुजुर्गों में सागरपुर के रूप सिंह, श्याम सुंदर सौरोत के अनुसार यह समृद्धि बनी रहे, इसकी विशेष कामना के लिए दशहरा के अवसर पर ईश्वर की पूजा करने के लिए पहले कच्चे घरों के प्रांगण में गोबर और मिट्टी से चौका लगाया जाता था और गोबर की 10 थपकली बनाई जाती थी। यह थपकली दस दिशाओं में रखी जाती थी।
इनके ऊपर अनाज से भर कर मिट्टी की कुलिया रखी जाती थी। दसाें दिशाओं में कुलिया रखने के पीछे अभिप्राय यह रहता था कि प्रत्येक दिशा से सुख-समृद्धि का आगमन हो। सदियों पुरानी इसी परंपरा का निर्वाह आज भी हो रहा है और हमें खुशी है कि पीढ़ी दर पीढ़ी युवा इस परंपरा को निभा रहे हैं और आधुनिक तकनीक के इस युग में यह संस्कृति जिंदा है।
कुलिया को बदलने की भी है परंपरा
अनाज से भरी हुई कुलिया को एक-दूसरे के घरों में पास-पड़ोस में बदला भी जाता है। इससे एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ता है। पूजा करके सभी 10 दिशाओं से पशुधन और फसलों पर धनधान्य की पूजा की जाती है। अब खरीफ की फसल पक चुकी है, जो घरों के अंदर आ रही है। कुछ दिन बाद रबी की फसल की बोआई की जाएगी। नई फसल की बोआई की तैयारी को लेकर दशहरा की पूजा में गेहूं के अंकुरित पौधे रखे जाते हैं।
दशहरा वाले दिन रात के समय युवती कच्चे मटके में बड़े-बड़े छेद करके उसके अंदर आग लगाकर तालाब में तैराती हैं। इस मटका को युवती मल्हो कहती हैं। युवती लोकगीत गाती हैं कि मेरी मल्हो बीच में छोरा रोवें कीच में। इन पंक्तियों को सुनने के बाद युवा भी लठ लेकर तालाब में तैर कर जाते हैं और मल्हो को डंडा से फोड़ देते हैं। इस तरह से ग्रामीण क्षेत्र में दशहरा मनाने की अपनी पुरानी परंपरा चल आ रही हैं।
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ताकि आने वाली पीढ़ी भी सीखे
“हमारी मां-दादी ने गोबर की थपकली बनाकर और उनके ऊपर अनाज से भरी कुलिया रख कर पूजा करना सिखाया है। हम अभी भी इसी तरह से पूजा कर उनकी परपंरा को संभाल कर रखना चाहते हैं ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी भी इसे सीखें।“
-ममता, गृहिणी
कुलिया से अनाज से खरीदते हैं सामान
“अनाज से भरी कुलिया को आस-पड़ोस के घरों में बदलने के लिए हमारी मां और दादी कहती हैं। ऐसा करना बहुत ही अच्छा लगता है। फिर 10 कुलिया के अंदर भरे हुए अनाज को निकाल कर दुकानदारों के पास लेकर जाते हैं और कुछ खाने का सामान खरीद लेते हैं।“
-मोनिका बेनीवाल
पशु ही सबसे बड़ा धन
“दशहरा वाले दिन गेहूं के अंकुरित पौधे को कान पर भी लगाते हैं। इससे रबी की बोआई का समय शुरू हो जाता है। अब सरसों, जौ, गेहूं की बोआई शुरू हो जाएगी। किसान के लिए खेती और पशु ही सबसे बड़ा धन बताया गया है।“
-नंदलाल मोहना
गाय के गोबर और मूत्र को पवित्र माना गया
“दशहरा का गोबर की थपकली बनाकर और उनके ऊपर अनाज से भरी कुलिया रख कर पूजा करने की हमारी वैदिक परंपरा है। वेदों के अनुसार गाय के गोबर और मूत्र को पवित्र माना गया है। इसलिए थपकली बनाई जाती हैं। कुलिया को एक भंडार का रूप दिया और उसे अनाज से भरा गया है, इसलिए दस दिशाओं से सुख-स्मृद्धि मिले, यह कामना करते हैं।“
-डाॅ. टीडी दिनकर, अग्रवाल काॅलेज के सेवानिवृत्त हिंदी डीन
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