प्रयागराज में 1960 के दशक का नवरात्र और दशहरा अपने में सुनहरी यादें समेटे है। फोटो जागरण आर्काइव
सूर्य प्रकाश तिवारी, प्रयागराज। नवरात्र और दशहरा मनाया जरूरत जाता है। खूब धूमधाम और धूमधड़ाका भी होता, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही। वह उत्साह नहीं रहा जो 60 के दशक में रहता था। मुझे अब भी याद है 1960 की नवरात्र व दशहरा। यह कहना है समाजसेवी सीता श्रीवास्तव का। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
उन्होंने बताया कि उस वक्त वे अपने मायका शहर के जीरो रोड मुहल्ला में रहती थी। हर कोई रामदल देखने को ललायित रहता था। बड़ों से ज्यादा उत्साह तो बच्चों में दिखता था। कई दिन पहले से तैयारी शुरू हो जाती थी। कौन-कौन जाएगा, इसकी गिनती शुरू हो जाती थी।
वैसे तो नवमी व दशमी के आयोजन ही आकर्षण के केंद्र रहते थे, लेकिन इसकी धूम तो नवरात्र के पहले दिन से ही चौक इलाके में नजर आने लगती थी। नवमी के दिन पजावा का रामदल घर से ही देख लेते थे। जबकि, पथरचट्टी के रामदल को देखने के लिए बाहर जाना पड़ता था। सिर्फ रामदल की रौनक देखने के लिए पूरी-पूरी रात जगते थे। रात भर तरह-तरह के खाने-पीने की चीजें मिलती थी।azamgarh-crime,Varanasi News,Varanasi Latest News,Varanasi News in Hindi,Varanasi Samachar,Azamgarh liquor smuggling,ambulance liquor smuggling,liquor smuggling arrest,Bihar liquor mafia,Jahanaganj police,English liquor seizure,fake number plate,festival liquor smuggling,UP police action,liquor smuggling,आजमगढ़ टाप न्यूज,Azamgarh top news, Azamgarh latest news, Azamgarh trending news, Bihar election, bihar vidhansabha chunav, liquor in bihar, Liquor from ambulance, Viral news, odd news, weird news, chandigarh,Uttar Pradesh news
सीता ने बताया कि सरायअकिल में मेरी ननिहाल थी। दशहरा के उत्सव पर वहां से भी लोग आते थे। यही नहीं मेरे पति इंजीनियर हैं। उनके दोस्तों को भी इंतजार रहता था। वह कई दिन पहले से ही यहां आने की बात कहने लगते थे। चौक व उसके आसपास की सजावट और रोशनी देख लगता था कि जैसे स्वर्ग धरती पर उतार आया हो
बताया कि कभी भाभी तो कभी कोई परिवार का दूसरा सदस्य या रिश्तेदार घर आ जाता था। बड़ों से इजाजत रामदल दिखाने लेकर सारे बच्चों को अपने साथ ले जाता था। रामबाग के उस दृश्य को कैसे भुला सकती हूं, जिसमें रावण का मंचन होता था। रावण खुद भी नृत्य करता था और दूसरों को भी नचाता था। न तो कहीं कुर्सी व सोफे लगते थे और न ही फाम वाले गद्दे बिछाए जाते थे। सिर्फ टाट पट्टी बिछी रहती थी। इसी में सब एक साथ बैठते थे। फिर चाहे कोई छोटा या बड़ा और अमीर हो या गरीब। हालांकि, अब भी बड़ी धूमधाम से आयोजन होते हैं।
वह उत्साह नहीं दिखता जो पहले नजर आता था। न जाने वह उत्सुकता कहां गुम हो गई। आज की नई पीढ़ी को अब ऐसे आयोजन रास ही नहीं आते। बच्चों से जब कहो तो वह भी तैयार नहीं होते। आज के बच्चों व नौजवानों को यह भीड़ नजर आती है, लेकिन उन्हें कौन समझाए कि यह भीड़ नहीं बल्कि हमारी संस्कृति है।
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