अभिषेक द्विवेदी, जागरण, महोबा। बुंदेलखंड का दिवारी नृत्य अनूठी विधा है। दीपावली के अवसर पर गांव-गांव दिवारी नृत्य का आयोजन होता है और इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती है। जोशीले अंदाज में ढोल नगाड़े की टंकार, पैरों में घुंघरू और कमर में पट्टा के साथ हाथों में लाठियां लेकर बुंदेले एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, तो चटाक -चटाक की आवाज सुनकर सभी दंग रह जाते है और शरीर में सिहरन उठती है। रोंगटे खड़े करने वाली लट्ठमार दिवारी हाइटेक युग की मार्शल आर्ट से किसी मायने में कम नहीं है। सभी आश्चर्यचकित हो जाते है जब लाठियों के प्रहार से किसी को जरा सी भी चोट नहीं आती और यह अनूठी विधा लोगों के दिलों को जोड़ती है। सदियों से लोग इस परंपरा को जीवंत किए हुए है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें  
 
कार्तिक मास में इस लोक विधा की धूम मचने लगती है। दीपावली और कार्तिक में तो यह विधा अपने पूरे रंग में नजर आती है। लाठियों की तड़तड़ाहट से दिल टूटते नहीं बल्कि और गहरे होकर रिश्ते जुड़ जाते है। यह बुंदेली धरा के शौर्य एवं पराक्रम का प्रतीक भी है। इस दौरान विदेशी पर्यटक भी झूमते हैं।  
 
इतिहासकार डा. एलसी अनुरागी व साहित्यकार संतोष पटैरिया बताते है कि चंदेल शासनकाल में शुरू हुई इस अनूठी लोक विधा का उद्देश्य था कि घर-घर में रणबांकुरे तैयार किए जाएं, जो बुराई व अपने दुश्मनों का डटकर मुकाबला कर सकें। दशहरा के बाद से ही इस नृत्य का अभ्यास शुरू हो जाता है। मोर पंख लगाकर इस विधा के पारंगत युवा, वृद्ध व बच्चे टोलियां बनाकर दिवारी नृत्य खेलते है, तो लाठियों की तड़तड़ाहट से लोगों का दिल दहलने के साथ ही दिवारी खेल रहे लोगों की भुजाएं फड़कने लगती हैं। यह अनूठी परंपरा बुंदेली संस्कृति का अभिन्न अंग भी है।  
 
शहर के वृद्ध महेश्वरीदीन तिवारी, छिकहरा के आल्हा सम्राट वंश गोपाल यादव का मानना है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था, तब इसकी खुशी में ग्वालवालों ने हाथों में लाठियां लेकर यह नृत्य किया था। वह बताते है कि 36 विधाओं का यह अनोखा खेल है। कार्तिक मास की एकादशी को तो गांवों में लोग टोलियां बनाकर दिवारी नृत्य का प्रदर्शन करते है, जिन्हें देखने को बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ उमड़ती है। गांव-गांव इसमें युवाओं को पारंगत किए जाने से प्रशिक्षण दिया जा रहा है और दीपावली के बाद से ही गांव-गांव में दिवारी नृत्य की झलक देखने को मिलती है। |