वोटकटवा से तीन चुनावों में हुई 8 करोड़ से ज्यादा की कमाई
जागरण संवाददाता, पटना। विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने ही वाला है। राजनीतिक दलों के अलावा बड़ी संख्या में निर्दलीय ताल ठोकने की तैयारी में है। यहां की चुनावी राजनीति में हर बार एक दिलचस्प पहलू यह कि चुनाव परिणाम क्या होने वाला है, यह जानते हुए भी प्रत्याशी मैदान में उतरते हैं। ये वोटकटवा साबित होते हैं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
ऐसे प्रत्याशी न तो बड़े दलों की तरह मजबूत संगठन और संसाधन रखते हैं, और न ही इनके पास जनता में व्यापक पकड़ होती है। बावजूद इसके, नामांकन पत्र दाखिल करने और चुनाव लड़ने का रोमांच इन्हें आकर्षित करता है। नतीजा होता है कि उनकी जमानत जब्त हो जाती है। यह राशि सरकारी खजाने में जमा होती है।
इन परिस्थितियों में जब्त होती है जमानत
चुनाव आयोग के नियम के अनुसार किसी भी प्रत्याशी को कुल वैध मतों का कम से कम 1/6 यानी 16.67 प्रतिशत वोट पाना जरूरी है, तभी उसकी जमानत सुरक्षित रहती है, अन्यथा जमा राशि जब्त कर ली जाती है।
वर्ष 2010 में हुए चुनाव में 3,019 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई थी। अगले चुनाव यानी 2015 में यह संख्या 2,935 जबकि 2020 के चुनाव में बढ़कर 3,205 तक पहुंच गई। विधानसभा चुनाव में सामान्य श्रेणी के प्रत्याशियों के लिए जमानत की राशि 10 हजार जबकि अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए पांच हजार निर्धारित है।
इस तरह से 2010 में करीब 2.82 करोड़, 2015 में 2.93 करोड़ तथा 2020 में 3.20 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में जमा किए गए। इस तरह से तीन विधानसभा चुनावों में यह संख्या आठ करोड़ से ज्यादा हो गई है। जब कोई प्रत्याशी तय वोट ले आता है तो भले उसकी हार हो जाए, उसकी जमानत राशि लौटा दी जाती है।
85 प्रतिशत तक प्रत्याशी नहीं बचा पाते जमानत
चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि विधानसभा चुनावों में औसतन 80-85 प्रतिशत प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती है। इसका मतलब है कि अधिसंख्य प्रत्याशी आवश्यक वोट प्रतिशत (कुल वैध मतों का कम से कम 16.67 प्रतिशत) हासिल ही नहीं कर पाते। इसके बावजूद चुनाव मैदान में उतरने की प्रवृत्ति हर बार और बढ़ती जा रही है।
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लोग मानते हैं कि वोटकटवा प्रत्याशियों का मकसद सीधे तौर पर जीतना नहीं, बल्कि मत विभाजन करना होता है। वे किसी बड़े प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगाकर उसका गणित बिगाड़ने की कोशिश करते हैं।
लोकसभा और विधानसभा चुनाव की जमानत राशि का चर्चा रिप्रेजेंटेटिव्स ऑफ पीपुल्स एक्ट 1951 में जबकि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव की जमानत राशि की चर्चा प्रेसिडेंट एंड वाइस प्रेसिडेंट इलेक्शन एक्ट 1952 में किया गया है।
प्रतिष्ठा और पहचान से जुड़ जाता चुनाव
बिहार जैसे राज्य में जातिगत समीकरण और स्थानीय मुद्दे राजनीति को गहराई से प्रभावित करते हैं। ऐसे में वोटकटवा प्रत्याशी अकसर किसी खास वर्ग या मोहल्ले का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर अपने वोटरों को खींचते हैं।
कई बार इनका असर इतना पड़ता है कि मुख्य मुकाबले के किसी प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ जाता है।
विश्लेषकों का कहना है कि वोटकटवा प्रत्याशियों का चुनाव में उतरना लोकतांत्रिक अधिकार तो है, लेकिन इससे चुनावी प्रक्रिया की गंभीरता पर सवाल उठते हैं। जब हजारों प्रत्याशी सिर्फ कुछ सौ या हजार वोटों तक सीमित रह जाते हैं, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए शुभ संकेत नहीं माना जाता।
यह भी सच है कि कई युवाओं और स्थानीय नेताओं के लिए चुनाव लड़ना प्रतिष्ठा और पहचान बनाने का जरिया बन गया है। वे जानते हैं कि परिणाम चाहे कुछ भी हो, उनका नाम मतपत्र पर छपा है और क्षेत्र में उन्हें राजनीतिक पहचान मिल रही है।
वर्ष जमानत गंवाने वाले उम्मीदवार
2010
3,019
2015
2,935
2020
3,205
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