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Bihar Politics: बिहार में एकजुट न हो सके छात्र, एक जमाने में चलता था सिक्का

Chikheang 2025-10-12 19:13:06 views 574

  

बिहार की राजनीति से छात्र गायब। फाइल फोटो  



प्रशांत सिंह, पटना। राज्य में चुनाव की तिथियों की घोषणा हो चुकी है। प्रवासन, रोजगार, नौकरी व भ्रष्टाचार मुद्दा है। जातियों की गोलबंदी के प्रयासों के बीच महिलाओं व बुजुर्गों को भी एक वर्ग बनाने का प्रयास है। इन सबके बीच भविष्य के सपने बुन रहे छात्र कहां हैं, वास्तविकता में उनके प्रश्न अनुत्तरित हैं।  विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

बड़ी बात यह कि इनकी परख करने को बिहार में कोई मजबूत छात्र संगठन भी नहीं है, जबकि यह वही राज्य है, जहां के छात्रों ने स्वतंत्रता के बाद 1955 में पहला आंदोलन मात्र इसलिए किया था कि राज्य ट्रांसपोर्ट की बसों की टिकट काटने की व्यवस्था अपेक्षित नहीं थी। छात्रों के आक्रोश को दबाने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिससे एक छात्र दीनानाथ पांडे की गोली लगने से मृत्यु हो गई।  

आंदोलन ऐसा भड़का कि हस्तक्षेप के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को आना पड़ा था। तत्कालीन परिवहन मंत्री महेश प्रसाद सिंह को त्यागपत्र देना पड़ा था। दूसरा छात्र आंदोलन 1966 में हुआ। इसकी शुरुआत मुजफ्फरपुर के आरडीएस कालेज से हुई थी।

कॉलेज के भौतिकी के प्राध्यापक डॉ देवेंद्र प्रसाद सिंह से पुलिस की बदलसूकी के कारण छात्र भड़के थे। आंदोलन तेज हुआ तो पुलिस ने कैंपस में घुसकर फायरिंग कर दी, जिसमें एक छात्र व एक प्राध्यापक की मृत्यु हो गई। इसने आग में घी का काम किया और आंदोलन पूरे राज्य में फैल गया।  

पूरा समाज उद्वेलित था, परिणाम यह हुआ कि 1967 के फरवरी में विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस की सत्ता उखड़ गई। छात्र आंदोलन ने पहली बार राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार की बुनियाद रख दी। सिवान के महाराजगंज के पटेढ़ी गांव के महामाया प्रसाद सिन्हा राज्य की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री बनाए गए।

महामाया कृषक मजदूर प्रजा पार्टी (गैर मान्यता प्राप्त दल के कारण निर्दलीय माने गए) के इकलौते विधायक थे, परंतु छात्रों के प्रिय होने के कारण कांग्रेस के सभी विपक्षी दलों ने एकमत होकर उनको मुख्यमंत्री चुना था। किसी निर्दलीय विधायक के मुख्यमंत्री चुने जाने की वह पहली घटना थी।  

1966 के छात्र आंदोलन में वह बेहद सक्रिय थे, भाषणों में छात्रों को ‘मेरे जिगर के टुकड़ों’ कहते थे, जिसने छात्रों का दिल जीत लिया था। इसी कारण उन्होंने 1967 के चुनाव में पटना पश्चिम से तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय को लगभग सात हजार मतों से हरा दिया था।  

1974 में भ्रष्टाचार के विरुद्ध छात्रों के आंदोलन का जेपी ने नेतृत्व किया और संपूर्ण क्रांति का नारा दिया तो राज्य व देश की सरकारें बदल गईं। छात्रों ने आपातकाल का डटकर विरोध किया।  

आशय यह कि राज्य में छात्र समय-समय पर राजनीति के जिगर के टुकड़े बनते रहे, परंतु कभी एकजुट नहीं हो सके। इस कारण वह दलों के घोषणा पत्र में शीर्ष स्थान नहीं बना पाते और वादों व हकीकत के बीच स्वयं को तलाशते रह जाते हैं।
जानें 1967 में निर्दलीय के मुख्यमंत्री बनने की कहानी

1967 में बिहार की 318 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। परिणाम आया तो कांग्रेस 128 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी, परंतु विधायक दल का नेता चुने के बावजूद महेश प्रसाद सिंह का पार्टी के 32 विधायकों ने विरोध कर दिया। तब कांग्रेस ने सरकार बनाने की दावेदारी का विचार त्याग दिया।  

राज्यपाल अनंत शयनम आयंगर ने विपक्ष को सरकार बनाने के लिए आगे आने को कहा। तब सभी विपक्षी दलों ने मिलकर संयुक्त विधायक दल (संविद) बनाया। उसमें भाकपा के 24, सोशलिस्ट पार्टी के 68, जनसंघ के 26, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 18, जन क्रांति दल के 13, स्वतंत्र पार्टी के तीन, माकपा के चार, रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया से एक और 33 निर्दलीय विधायक थे।  

सभी ने 33 सूत्री न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया। विधायकों ने मिलकर महामाया प्रसाद सिन्हा को दो कारणों से मुख्यमंत्री के लिए चुना। पहला, उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री को चुनाव में हराया था। दूसरा, वे छात्रों के बीच सर्वमान्य थे। विपक्ष के सबसे बड़े दल सोशलिस्ट पार्टी की ओर से कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बनाए गए।
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